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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी । कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।। ९५ ।। त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकम् । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।। ९५ ।। एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य ज्ञेयज्ञायकभावापन्नयोः परात्मनोः समानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोडहं पुद्गलोडहं जीवान्तरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽयमात्मा धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् सोपाधिचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । भ्रान्त्या १६९ ' मैं धर्म आदि ' विकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे । तब जीव उस उपयोगरूप, जीवभावका कर्ता बने ।। ९५ । भावार्थ:-अ :-अज्ञानरूप अर्थात् मिथ्यादर्शन-अज्ञान - अविरतिरूप तीन प्रकारका जो सविकार चैतन्यपरिणाम है वह अपना और परका भेद न जानकर 'मैं क्रोध हूँ, मैं मान हूँ' इत्यादि मानता है; इसलिये अज्ञानी जी उस अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है। अब इसी बातको विशेषरूपसे कहते हैं: तस्य गाथार्थ:- [त्रिविधः ] तीन प्रकारका [ एषः ] यह [ उपयोगः ] उपयोग [धर्मादिकम् ] 'मैं धर्मास्तिकाय आदि हूँ' ऐसा [ आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [ करोति ] करता है; इसलिये [ स ] आत्मा [ तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] अपने भावका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com टीका:- वास्तवमें यह सामान्यरूपसे अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन-अज्ञान– अविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे और अविशेष रतिसे ( लीनता) से समस्त भेदको छिपाकर ज्ञेयज्ञायकभावको प्राप्त ऐसे स्व-परका सामान्य अधिकरणसे अनुभव करनेसे, — मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ' ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये, 'मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ' ऐसी भ्रांतिके कारण जो सोपाधिक ( उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामको परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है।
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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