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समयसार
१७६
(मन्दाक्रान्ता) ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः। ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातो: क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्।। ६० ।।
(अनुष्टुभ् ) अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा। स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न कचित्।। ६१ ।।
( अनुष्टुभ् ) आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्। परभावस्य कत्मिा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।। ६२ ।।
श्लोकार्थ:- [ज्वलन-पयसोः औष्णय-शैत्य-व्यवस्था] (गर्म पानीमें ) अग्निकी उष्णताका और पानीकी शीतलताका भेद, [ज्ञानात् एव ] ज्ञानसे ही प्रगट होता है। [ लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति] नमकके स्वादभेदका निरसन (-निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानसे ही होता है ( अर्थात् ज्ञानसे ही व्यंजनगत नमकका सामान्य स्वाद उभर आता है और उसका स्वादविशेष निरस्त होता है)। [ स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादे: भिदा] निज रससे विकसित होती हुई नित्य चैतन्यधातुका और क्रोधादि भावका भेद , [ कर्तृ भावम् भिन्दती] कर्तृत्वको (कर्तापनके भावको) भेदता हुआ, [ज्ञानात् एव प्रभवति ] ज्ञानसे ही प्रगट होता है। ६०।
___ अब, अज्ञानी भी अपने ही भावको करता है किन्तु पुद्गलके भावको कभी नहीं करता-इस अर्थका , आगेकी गाथाका सूचक श्लोक कहते है:
श्लोकार्थ:- [ एवं ] इसप्रकार [अञ्जसा] वास्तव में [आत्मानम् ] अपनेको [अज्ञानं ज्ञानम् अपि] अज्ञानरूप या ज्ञानरूप [ कुर्वत् ] करता हुआ [आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात् ] आत्मा अपने ही भावका कर्ता है, [ परभावस्य ] परभावका (पुद्गलके भावोंका) कर्ता तो [ क्वचित् न ] कदापि नहीं है। ६१।
इसी बात को दृढ़ करते हुये कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [आत्मा ज्ञानं ] आत्मा ज्ञानस्वरूप है, [ स्वयं ज्ञानं ] स्वयं ज्ञान ही है; [ ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति ] वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? [ आत्मा परभावस्य कर्ता] आत्मा परभावका कर्ता है [अयं ] ऐसा मानना ( तथा कहना) सो [ व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी जीवोंका मोह ( अज्ञान) है। ६२।
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