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( वसन्ततिलका) ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो जानाति हंस इव वाःपयसोर्धिशेषम्। चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ।। ५९ ।।
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भावार्थ:-अज्ञानसे क्या-क्या नहीं होता ? हिरण बालू की चमकको जल समझकर पीने दौड़ते हैं और इसीप्रकार वे खेदखिन्न होते हैं। अंधेरे में पड़ी हुई रस्सीको सर्प मानकर लोग उससे डरकर भागते हैं । इसीप्रकार यह आत्मा, पवनसे क्षुब्ध हुये तरंगित समुद्रकी भाँति, अज्ञानके कारण अनेक विकल्प करता हुआ क्षुब्ध होता है और इसप्रकार - यद्यपि परमार्थ से वह शुद्धज्ञानघन है तथापि-अज्ञानसे कर्ता होता है। । ५८।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानसे आत्मा कर्ता नहीं होता:
श्लोकार्थ :- [ हंसः वाः पयसोः इव ] जैसे हंस दूध और पानीके विशेष (अंतर) को जानता है उसीप्रकार [ यः ] जो जीव [ ज्ञानात् ] ज्ञानके कारण [विवेचकतया ] विवेकवाला (भेदज्ञानवाला) होनेसे [ परात्मनो: तु] परके और अपने [विशेषम् ] विशेषको [ जानाति ] जानता है [ सः ] वह ( जैसे हंस मिश्रित हुवे दूध और पानी अलग करके दूधको ग्रहण करता है उसीप्रकार ) [ अचलं चैतन्यधातुम् ] अचल चैतन्यधातुमें [ सदा ] सदा [ अधिरूढ: ] आरूढ़ होता हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [ जानीत एव हि ] मात्र जानता ही है, [ किञ्चन अपि न करोति ] किंचित् मात्र भी कर्ता नहीं होता ( अर्थात् ज्ञाता ही रहता है, कर्ता नहीं होता ) ।
भावार्थ:-जो स्व-परके भेद को जानता है वह ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं । ५९ । अब, यह कहते हैं कि जो कुछ ज्ञाता होता है वह ज्ञान से ही होता है:
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