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कर्ता-कर्म अधिकार
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तथापिववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि। करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि।।९८ ।।
व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि।
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि।।९८ ।। व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमन्तःकर्मापि करोत्यविशेषादित्यस्ति व्यामोहः।
स न सन्
अब कहते हैं कि व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं:
घट-पट-रथादिक वस्तुएं, कर्मादि अरु सब इन्द्रियें । नोकर्म विधविध जगतमें, आत्मा करे व्यवहारसे ।। ९८ ।।
गाथार्थ:- [ व्यवहारेण तु] व्यवहारसे अर्थात् व्यवहारी जन मानते हैं कि [ इह ] जगतमें [ आत्मा ] आत्मा [ घटपटरथान् द्रव्याणि ] घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओंको, [च] और [करणानि] इंद्रियोंको, [ विविधानि] अनेक प्रकारके [ कर्माणि] क्रोधादि द्रव्यकर्मोंको [च नोकर्माणि ] और शरीरादिक नोकर्मीको [ करोति ] करता है।
टीका:-जिससे अपने (इच्छारूप) विकल्प और (हस्तादिकी क्रियारूप) व्यापारके द्वारा यह आत्मा घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाह्यकर्मको करता हुआ ( व्यवहारीजनोंको) प्रतिभासित होता है इसलिये उसीप्रकार (आत्मा) क्रोधादि परद्रव्यस्वरूप समस्त अंतरंग कर्मको भी-(उपतोक्त) दोनों कर्म परद्रव्यस्वरूप हैं इसलिये उनमें अंतर न होनेसे-करता है, ऐसा व्यवहारी जनोंका व्यामोह (भ्रांति, अज्ञान) है।
भावार्थ:-घट-पट, कर्म-नोकर्म इत्यादि परद्रव्योंको आत्मा करता है ऐसा मानना सो व्यवहारी जनोंका व्यवहार या अज्ञान है।
अब कहते हैं कि व्यवहारी जनोंकी यह मान्यता यथार्थ नहीं है:
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