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समयसार
२२८
( शार्दूलविक्रीडित) दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात्। विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहरन् आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत्।। ९४ ।।
___ (अनुष्टुभ् ) विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम्। न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।। ९५ ।।
श्लोकार्थ:- [ तोयवत् ] जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह रहा हो उसे दूरसे ही ढालवाले मार्गके द्वारा अपने समूहकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो फिर वह पानी, पानीको पानीके समूहकी तरफ खिंचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूह में आ मिलता है; इसीप्रकार [ अयं] यह आत्मा [निज-ओधात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत होकर [ भूरि-विकल्प-जालगहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालोंके गहन वनमें दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [ दूरात् एव] दूरसे ही [ विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओधं बलात् नीतः] अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिये [ तद्-एक-रसिनाम् ] केवल विज्ञानघनके ही रसिक पुरुषोंको [विज्ञानएक-रस: आत्मा] जो एक विज्ञानरसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, [ आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ] आत्माको आत्मामें खींचता हुआ अर्थात् ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [ सदा गतातुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है।
भावार्थ:-जैसे पानी, अपने पानीके निवासस्थलसे किसी मार्ग से बाहर निकलकर वनमें अनेक स्थानोंपर बह निकले; और फिर किसी ढलानवाले मार्ग द्वारा, ज्यों का त्यों अपने निवासस्थानमें आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्वके मार्गसे, स्वभावसे बाहर निकलकर विकल्पोंके वनमें भ्रमण करता हुआ किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा स्वयं ही अपनेको खींचता हुआ अपने विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है। ९४।
__ अब कर्ताकर्म अधिकारका उपसंहार करते हुए, कुछ कलशरूप काव्य कहते हैं; उनमेंसे प्रथम कलशमें कर्ता और कर्मका संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ विकल्पकः परं कर्ता] विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और [ विकल्पः केवलम् कर्म ] विकल्प ही केवल कर्म है; ( अन्य कोई कर्ता-कर्म नहीं है;) [ सविकल्पस्य ] जो जीव विकल्पसहित है उसका [ कर्तृकर्मत्वं] कर्ताकर्मपना [जातु] कभी [ नश्यति न] नष्ट नहीं होता।
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