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बंध अधिकार
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(शार्दूलविक्रीडित) इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात् तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्। आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति।।१७८ ।।
भावार्थ:-यहाँ अधःकर्म और उदेशिक आहारके दृष्टांतसे द्रव्य और भावकी निमित्त-नैमित्तिकता दृढ़ की है।
जो पापकर्मसे आहार उत्पन्न हो उसे अधःकर्म कहते हैं, तथा उस आहारको भी अधःकर्म कहते हैं। जो आहार, ग्रहण करनेवालेके निमित्तसे ही बनाया गया हो उसे उदेशिक कहते हैं। ऐसे (अध:कर्म और उदेशिक) आहारका जिसने प्रत्याख्यान नहीं किया उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान नहीं किया और जिसने तत्त्वज्ञानपूर्वक उस आहारका प्रत्याख्यान किया है उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान किया है। इसप्रकार समस्त द्रव्य और भावको निमित्त-नैमित्तिकभाव जानना चाहिये। जो परद्रव्यको ग्रहण करता है उसे रागादिभाव भी होते हैं, वह उनका कर्ता भी होता है और इसलिये कर्मका बंध भी करता है; जब आत्मा ज्ञानी होता है तब उसे कुछ ग्रहण करनेका राग नहीं होता, इसलिये रागादिरूप परिणमन भी नहीं होता और इसलिये आगामी बंध भी नहीं होता। (इसप्रकार ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है।)
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं, जिसमें परद्रव्यके त्यागनेका उपदेश है:
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार (परद्रव्य और अपने भावकी निमित्तनैमित्तिकताको ) [ आलोच्य ] विचार करके, [ तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी संततिको एकसाथ उखाड़ फेंकनेका इच्छुक पुरुष, [ तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] उस समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक ( - उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न करके (त्याग करके), [ निर्भरवहत्-पूर्ण-एफसंविद्-युतं आत्मानं ] अतिशयता से बहते हुए ( –धारावाही) पूर्ण एक संवेदनसे युक्त अपने आत्माको [ समुपैति] प्राप्त करता है, [येन ] कि जिससे [ उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जिसने कर्मबंधनको मूलसे उखाड़ फेंका है ऐसा वह भगवान आत्मा [आत्मनि ] अपने में ही ( -आत्मामें ही) [ स्फूर्जति ] स्फुरायमान होता है।
भावार्थ:-परद्रव्य और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिकता जानकर समस्त परद्रव्योंको भिन्न करनेमें-त्यागनेमें आते हैं तब समस्त रागादिभावोंकी संतति कट जाती है और तब आत्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्म बंधनको काटकर अपनेमें ही प्रकाशित होता है। इसलिये जो अपना हित चाहते हैं वे ऐसा ही करें। १७८ ।
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