________________
४३०
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
9
समयसार
पण्णाए घित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।। २९८ ।। पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।। २९९ ।।
प्रज्ञया गृहीतव्यो यो द्रष्टा सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ।। २९८ ।। प्रज्ञया गृहीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः। अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः।। २९९ ।।
चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव। ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव; पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यतैव पश्यामि पश्यते एव पश्यामि पश्यत एव पश्यामि पश्यत्येव पश्यामि पश्यन्तमेव
3
3
3
कर ग्रहण प्रज्ञासे नियत, दृष्टा है सो ही मैं हि हूँ । अचशेष जो सब भाव है, मेरे से पर ही जानना ।। २९८ ।
कर ग्रहण प्रज्ञासे नियत, ज्ञाता है सो मैं हि हूँ । अचशेष जो सब भाव हैं, मेरे से पर ही जानना ।। २९९ ।।
गाथार्थ:- [ प्रज्ञया ] प्रज्ञा के द्वारा [ गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये कि - [ यः द्रष्टा ] जो देखनेवाला है [ सः तु ] वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम् ] मैं हूँ, [ अवशेषाः ] शेष [ ये भावा: ] जो भाव हैं [ ते ] [ मम पराः] मुझसे पर हैं [ इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिये ।
[ प्रज्ञया ] प्रज्ञा के द्वारा [ गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये कि – [ यः ज्ञाता] जो जाननेवाला है [ सः तु ] वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम्] मैं हूँ, [अवशेषाः ] चेष [ ये भावाः ] जो भाव हैं [ते] वे [ मम पराः ] मुझसे पर हैं [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिये ।
टीका:- चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोंका उल्लंघन नहीं करती है इसलिये, चेतकत्वकी भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व आत्माका स्वलक्षण ही है। इसलिये मैं देखनेवाला आत्माको ग्रहण करता हूँ । 'ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'देखता ही हूँ'; देखता हुआ ही देखता हूँ, देखते हुए के द्वारा ही देखता हूँ, देखते हुए के लिये ही देखता हूँ, देखते हुए से ही देखता हूँ, देखते हुए में ही देखता हूँ, देखते हुए को ही
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com