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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार ४२९ __ (शार्दूलविक्रीडित) भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबतातेत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम्। भिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति।। १८२ ।। क्योंकि चेतना ही आत्माकी एक क्रिया है। इसलिये मैह चेतता ही हूँ; चेतनेवाला ही, चेतनेवाले के द्वारा ही, चेतने वाले के लिये ही, चेतनेवाले से ही, चेतनेवालेमें हीं, चेतनेवाले को ही चेतता हूँ। अथवा द्रव्यदृष्टिसे तो-मुझमें छह कारकोंके भेद भी नहीं हैं, मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव हूँ। इसप्रकार प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण करना चाहिये अर्थात् अपनेको चेतयिताके रूपमें अनुभव करना चाहिये। अब इसी अर्थकां कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा] जो कुछ भी भेदा जा सकता है उस सबको स्वलक्षणके बलसे भेदकर, [चिन्मुद्राअङ्कित-निर्विभाग-महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्ति ] जिसकी चिन्मुद्रासे अंकित निर्विभाग महिमा है ( अर्थात् चैतन्य की मुद्रासे अंकित विभागरहित जिसकी महिमा हे) ऐसा शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ। [ यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम् ] यदि कारकके, अथवा धर्मोंके, या गुणोंके भेद हों, तो भले हों; [ विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति] किन्तु शुद्ध (-समस्त विभावोंसे रहित-) *विभु, ऐसा चैतन्यभावमें तो कोई भेद नहीं है। (इसप्रकार प्रज्ञा के द्वारा आत्माको ग्रहण किया जाता है।) भावार्थ:-जिनका स्वलक्षण चैतन्य नहीं है ऐसे परभाव तो मुझसे भिन्न हैं, मैं तो मात्र शुद्ध चैतन्य ही हूँ। कर्ता, कर्म, कारण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकभेद, सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व , अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेद और ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेद यदि कथंचित् हों तो भले हों; परंतु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें तो कोई भेद नहीं है। इसप्रकार शुद्धनयसे अभेदरूप आत्माको ग्रहण करना चाहिये। १८२। (आत्माको शुद्ध चैतन्यमात्र तो ग्रहण कराया; अब सामान्य चेतना दर्शनज्ञानसामान्यमय है इसलिये अनुभवमें दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माको इसप्रकार अनुभव करना चाहिये-सो कहते हैं:-) * विभु = दृढ़; अचल; नित्य; समर्थ; सर्व गुणपर्यायोंमें व्यापक। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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