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समयसार
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(शार्दूलविक्रीडित) क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्। साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं । ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।। १४२ ।।
णाणगुणेण विहीणा एवं तु पदं बहू वि ण लहंते। तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ।। २०५।।
ज्ञानगुणेन विहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभन्ते। तद् गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षम्।। २०५ ।।
श्लोकार्थ:- [ दुष्करतरैः ] कोई जीव तो दुष्करतर और [ मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्षसे पराङ्मुख [कर्मभिः ] कर्मों के द्वारा [ स्वयमेव ] स्वयमेव (जिनाज्ञाके बिना) [ क्लिश्यन्तां ] क्लेश पाते हैं तो पाओ [ च ] और [ परे ] अन्य कोई जीव [ महाव्रततप:-भारेण] ( मोक्षोन्मुख अर्थात् कथंचित् जिनाज्ञामें कथित) महाव्रत और तपके भारसे [ चिरम् ] बहुत समय तक [ भग्नाः ] भग्न होते हुए [ क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करो; (किन्तु) [ साक्षात् मोक्षः] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं] निरामय (भावरोगादि समस्त क्लेशोंसे रहित) पद है और [ स्वयं संवेद्यमानं] स्वयं संवेद्यमान है [इदं ज्ञानं] ऐसे इस ज्ञानको [ज्ञानगुणं विना] ज्ञानगुणके बिना [कथम् अपि] किसी भी प्रकारसे [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं कर सकते।
भावार्थ:-ज्ञान है वह साक्षात् मोक्ष है; वह ज्ञानसे ही प्राप्त होता है, अन्य किसी क्रियाकांडसे उसकी प्राप्ति नहीं होती। १४२।
अब यही उपदेश गाथा द्वारा कहते हैं:
रे ज्ञानगुणसे रहित बहुजन, पद नहीं यह पा सके । तू कर ग्रहण पद नियत ये, जो कर्ममोक्षेच्छा तुझे ।। २०५।।
गाथार्थ:- [ ज्ञानगुणेन विहीनाः ] ज्ञानगुणसे रहित [ बहवः अपि] बहुत से लोग ( अनेक प्रकारसे कर्म करते हुए भी) [ एतत् पदं तु] इस ज्ञानस्वरूप पदको [ न लभन्ते ] प्राप्त नहीं करते; [ तद् ] इसलिये हे भव्य ! [ यदि ] यदि तू [ कर्मपरिमोक्षम् ] कर्मसे सर्वथा मुक्ति [इच्छसि ] चाहता हो तो [ नियतम् एतत् ] नियत इस ज्ञानको [गृहाण ] ग्रहण कर।
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