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जीव-अजीव अधिकार
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(मन्दाक्रान्ता) इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः। विश्वं व्याप्य प्रसभविकसव्यक्तचिन्मात्रशक्त्या ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे।। ४५ ।।
अब, भेदज्ञानकी प्रवृत्ति के द्वारा यह ज्ञाताद्रव्य स्वयं प्रगट होता है इसप्रकार कलशमें महिमा प्रगट करके अधिकार पूर्ण करते हैं:
श्लोकार्थ:- [इत्थं ] इसप्रकार [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं] ज्ञानरूपी करवतका जो बारंबार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा] नचाकर [यावत् ] जहाँ [जीवाजीवौ ] जीव और अजीव दोनों [ स्फुट-विघटनं त एव प्रयातः ] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [ तावत् ] वहाँ तो [ ज्ञातृद्रव्यं ] ज्ञाताद्रव्य, [ प्रसभ-विकसत्-व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या] अत्यंत विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट चिन्मात्रशक्ति से [ विश्वं व्याप्य] विश्वको व्याप्त करके, [स्वयम् ] अपने आप ही [अतिरसात् ] अतिवेगसे [ उच्चैः ] उग्रतया अर्थात् आत्यंतिकरूपसे [ चकाशे] प्रकाशित हो उठा।
कलशका आशय दो प्रकार का है:
उपरोक्त ज्ञानका अभ्यास करते करते जहाँ जीव और अजीव दोनों स्पष्ट भिन्न समझमें आये कि तत्काल ही आत्माका निर्विकल्प अनुभव हुआ-सम्यग्दर्शन हुआ। ( सम्यग्दृष्टि आत्मा श्रुतज्ञान से विश्वके समस्त भावोंको संक्षेपसे अथवा विस्तारसे जानता है और निश्चयसे विश्वको प्रत्यक्ष जाननेका उसका स्वभाव है; इसलिये यह कहा है कि वह विश्वको जानता है।) एक आशय तो इस प्रकार है।
दूसरा आशय इस प्रकार से है: जीव-अजीवका अनादिकालीन संयोग केवल अलग होने से पूर्व अर्थात् जीवका मोक्ष होने से पूर्व , भेदज्ञानके भाते भाते अमुक दशा होनेपर निर्विकल्प धारा जमी-जिसमें केवल आत्माका अनुभव रहा; और वह श्रेणि अत्यंत वेगसे आगे बढ़ते बढ़ते केवलज्ञान प्रगट हुआ। और फिर अघातियाकर्मोंका नाश होनेपर जीवद्रव्य अजीवसे केवल भिन्न हुवा। जीव-अजीवके भिन्न होने की यह रीति है। ४५।
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