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समयसार
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इति जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रान्तौ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्क।।
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
टीका:-इसप्रकार जीव और अजीव अलग अलग होकर ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गये।
भावार्थ:-जीव-अजीव अधिकारमें पहले रंगभूमिस्थल कहकर उसके बाद टीकाकार आचार्यने ऐसा कहा था कि नृत्यके अखाड़ेमें जीव-अजीव दोनों एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनों ने एकत्व का स्वाँग रचा है। वहाँ, भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुषने सम्यग्ज्ञान से उन जीव-अजीव दोनों की उनके लक्षणभेदसे परीक्षा करके दोनों को पृथक् जाना इसलिये स्वाँग पूरा हुआ और दोनों अलग अलग होकर अखाड़ेसे बाहर निकल गये। इसप्रकार अलंकारपूर्वक वर्णन किया है।
जीव-अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ़ न आतम पावै, सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावें; श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावै। ते जगमांहि महंत कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित था।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें प्रथम जीवअजीवाधिकार समाप्त हुआ।
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