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कर्ता-कर्म अधिकार
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अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः।
(मन्दाक्रान्ता) एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्याज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्। ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम्।। ४६ ।।
दोहा--कर्ताकर्मविभावकू, मेटि ज्ञानमय होय,
कर्म नाशि शिवमें बसे , तिहें नमुं , मद खोय। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि 'अब जीव-अजीव ही एक कर्ताकर्मके वेषमें प्रवेश करते हैं।' जैसे दो पुरुष परस्पर कोई एक स्वाँग करके नृत्यके अखाड़ेमें प्रवेश करें उसीप्रकार जीव-अजीव दोनों एक कर्ताकर्मका स्वांग करके प्रवेश करते हैं इसप्रकार यहाँ टीकाकारने अलंकार किया है।
अब पहले, उस स्वाँगको ज्ञान यथार्थ जान लेता है उस ज्ञानकी महिमाका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ इह ] 'इस लोकमें [अहम् चिद् ] मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो [एक: कर्ता] एक कर्ता हूँ और [ अमी कोपादयः] यह क्रोधादि भाव [ मे कर्म] मेरे कर्म हैं' [इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ] ऐसी अज्ञानियोंके जो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है उसे [ अभितः शमयत् ] सब ओर से शमन करती हुई ( –मिटाती हुई ) [ ज्ञानज्योति:] ज्ञानज्योति [ स्फुरति] स्फुरायमान होती है। वह ज्ञानज्योति ? [ परम-उदात्तम् ] परम उदात्त है अर्थात् किसीके आधीन नहीं है, [अत्यन्तधीरं] अत्यंत धीर है अर्थात् किसी भी प्रकारसे आकुलतारूप नहीं है और [निरुपधि-पृथग्द्रव्य-निर्भासि] परकी सहायताके बिना भिन्न भिन्न द्रव्योंको प्रकाशित करनेका उसका स्वभाव है इसलिये [विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] वह समस्त लोकालोक को साक्षात् करती है-प्रत्यक्ष जानती
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