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समयसार
३५६
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं। सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३३ ।। यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगूहनकस्तु सर्वधर्माणाम्। स उपगूहनकारी सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २३३ ।।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुपबृंहकः, ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
जो सिद्धभक्तिसहित है, गोपन करे सब धर्मका । चिन्मूर्ति वो उपगुहनकर सम्यक्तदृष्टि जानना ।। २३३ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो (चेतयिता) [ सिद्धभक्तियुक्त:] सिद्धोंकी शुद्धात्माकी भक्ति से युक्त है [ तु] और [ सर्वधर्माणाम् उपगूहनक:] पर वस्तुओंके सर्व धर्मोको गोपनेवाला है (अर्थात् रागादि परभावोंमें युक्त नहीं होता) [ सः] उसको [ उपगूहनकारी] उपगूहन करनेवाला [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण समस्त आत्मशक्तियोंकी वृद्धि करता है, इसलिये उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्ति बढ़ानेवाला है, इसलिये उस जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे ( मंदतासे ) होनेवाला बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि उपगृहनगुण युक्त है। उपगूहन अर्थ छिपाना है। यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कहा है कि सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया हुआ है, और जहाँ उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया वहाँ अन्य धर्मों पर दृष्टि ही नहीं रही इसलिये वह समस्त अन्य धर्मोंका गोपनेवाला है और आत्मशक्तिका बढ़नेवाला है।
इस गुणका दूसरा नाम ‘उपबृंहण' भी है। उपबृंहण अर्थ है बढ़ाना। सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धोंके स्वरूपमें लगाया है इसलिये उसके समस्त शक्तियाँ बढ़ती हैं-आत्मा पुष्ट होता है इसलिये वह उपबृंहणगुणवाला है।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके आत्मशक्तिकी वृद्धि होती है इसलिये उसे दुर्बलतासे जो बंध होता था वह नहीं होता, निर्जरा ही होती है। यद्यपि जबतक अंतरायका उदय है तबतक निर्बलता है तथापि उसके अभिप्रायमें निर्बलता नहीं है, किन्तु अपनी शक्तिके अनुसार कर्मोदयको जीतनेका महान उद्यम वर्तता है।
अब स्थितिकरण गुणकी गाथा कहते हैं:
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