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निर्जरा अधिकार
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जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्यो।। २३२ ।। यो भवति असम्मूढः चेतयिता सदृष्टि: सर्वभावेषु।
स खलु अमूढदृष्टि: सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २३२ ।। यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टिः, ततोऽस्य मूढदृष्टिकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
यद्यपि उसके जुगुप्सा नामक कर्मप्रकृतिका उदय आता है तथापि वह स्वयं उसका कर्ता नहीं होता इसलिये उसे जुगुप्साकृत बंध नहीं होता, परंतु प्रकृति रस देकर खिर जाती है इसलिये निर्जरा ही होती है।
अब अमूढदृष्टि अंगकी गाथा कहते हैं:
संमूढ नहिं सब भावमें जो,-सत्यदृष्टि धारता। वो मूढ़दृष्टिरहित सम्यग्दृष्टि निश्चय जानना ।। २३२।।
गाथार्थ:- [य: चेतयिता] जो चेतयिता [ सर्वभावेषु ] सर्व भावोंमें [ असम्मूढः ] अमूढ़ है- [ सदृष्टि: ] यथार्थ दृष्टिवाला [ भवति] है, [ सः] उसको [ खलु ] निश्चयसे [अमूढदृष्टि: ] अमूढ़दृष्टि [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी भावोंमें मोहका अभाव होनेसे , अमूढदृष्टि है, इसलिये उसे मूढदृष्टिकृत बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि सर्व पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ जानता है; उसे रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे किसी भी पदार्थ पर अयथार्थ दृष्टि नहीं पड़ती। चारित्रमोहके उदयसे इष्टानिष्ट भाव उत्पन्न हों तथापि उसे उदयकी बलवत्ता जानकर वह उन भावोंका स्वयं कर्ता नहीं होता इसलिये उसे मूढदृष्टिकृत बंध नहीं होता परंतु प्रकृति रस देकर खिर जाती है इसलिये निर्जरा ही होती है।
अब उपगूहन गुणकी गाथा कहते हैं:
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