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समयसार
६१४
( शार्दूलविक्रीडित) यस्माद् द्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः। भुञ्जाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किञ्चिन्न किञ्चित्किल।। २७७ ।।
अब श्रीमान् अमृतचंद्राचार्यदेव दो श्लोक कहकर इस समयसारग्रन्थकी आत्मख्याति नामकी टीका पूर्ण करते हैं।
'अज्ञानदशामें आत्मा स्वरूपको भूलकर रागद्वेषमें प्रवृत्त होता था, परद्रव्यकी क्रियाका कर्ता बनता था, क्रियाके फलका भोक्ता होता था, -इत्यादि भाव करता था; किन्तु अब ज्ञानदशामें वे भाव कुछ भी नहीं है ऐसा अनुभव किया जाता है।' इसी अर्थका प्रथम श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यस्मात् ] जिससे ( अर्थात् जो पर संयोगरूप बंधपर्याय जनित अज्ञानसे) [ पुरा] प्रथम [ स्व-परयोः द्वैतम् अभूत् ] अपना और परका द्वैत हुआ ( अर्थात् स्वपरके मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं] द्वैतभाव होनेसे जिससे स्वरूपमें अंतर पड़ गया ( अर्थात् बंधपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई, [ यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति] स्वरूपमें अंतर पड़नेपर जिससे रागद्वेषका ग्रहण हुआ, [ क्रिया-कारकै: जातं] रागद्वेषका ग्रहण होनेपर जिससे क्रियाके कारक उत्पन्न हुए ( अर्थात् क्रिया और कर्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [ यतः च अनुभूति: क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना] कारक उत्पन्न होनेपर जिससे अनुभूति क्रियाके समस्त फलको भोगती हुई खिन्न हो गई, [ तत् विज्ञान-घन-ओघ-मग्नम् ] वह अज्ञान अब विज्ञानघन समूह में मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूप परिणमित हुआ) [ अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित् ] इसलिये अब वह सब वास्तवमें कुछ भी नहीं है।
भावार्थ:-परसंयोगसे ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक वस्तु नहीं था; इसलिये अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान ) कुछ भी नहीं रहा, अज्ञानके निमित्तसे राग, द्वेष , क्रियाके कर्तृत्व, क्रियाके फलका (-सुखदुःखका) भोक्तृत्व आदि भाव हुए थे वे भी विलय हो गये हैं; एक ज्ञान ही रह गया है। इसलिये अब आत्मा स्व-परके त्रिकालवर्ती भावोंको ज्ञाता-द्रष्टा होकर-जानते-देखते ही रहो। २७७।
___‘पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानदशामें परकी क्रिया अपनी भासित न होनेसे , इस समयसारकी व्याख्या करने की क्रिया भी मेरी नहीं है, शब्दोंकी है'-इस अर्थका , समयसारकी व्याख्या करनेके अभिमानरूप कषायके त्यागका सुचक श्लोक अब कहते हैं:
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