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[परिशिष्टम्]
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(उपजाति) स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः। स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति ।
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।। २७८ ।। इति श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृता समयसारव्याख्या आत्मख्यातिः समाप्ता।।
श्लोकार्थ:- [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुतत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंनें [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी व्याख्या ( -आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृत शास्त्रकी टीका) [ कृता] की है; [ स्वरूप-गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त ( - अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूप गुप्त) अमृतचंद्रसूरिका (इसमें) [ किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] [ तेमां] कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
भावार्थ:-शब्द तो पुद्गल है। वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका वाच्यवाचक संबंध है। इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है। आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है। इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसीलिये आचार्यदेवने कहा है कि इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें ( -टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य (कार्य) नहीं है।' यह कथन आचार्यदेवकी निर्भिमानताको भी सूचित करता है। अब यदि निमित्तनैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुषने यह अमुक कार्य किया है। इस न्यायसे यह आत्मख्याति नामकी टीका भी अमृतचंद्राचार्यकृत है ही। इसलिये पढ़ने-सुननेवालोंको उनका उपकार मानना भी युक्त है; क्योंकि इसके पढ़ने-सुननेसे पारमार्थिक आत्माका स्वरूप ज्ञात होता है, उसका श्रद्धान तथा आचरण होता है, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर होता है और परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति होती है। मुमुक्षुओंको इसका निरंतर अभ्यास करना चाहिये। २७८।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीका समाप्त हुई।
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