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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २२४ दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि णवरं तु समयपडिबद्धो। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो।।१४३ ।। द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः। न तु नयपक्षं गृह्णाति किञ्चिदपि नयपक्षपरिहीनः।। १४३ ।। यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति, न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्यं स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानभूमिकाति-क्रान्ततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात् कञ्चनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल य: श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः क्षयोपशमविजृम्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानात्मकसमस्तान्तर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रान्ततया नयद्वयकथन जाने हि केवल समयमें प्रतिबद्ध जो। नयपक्ष कुछ भी नहिं ग्रहे, नयपक्षसे परिहीन वो ।।१४३।। गाथार्थ:- [ नयपक्षपरिहीनः ] नयपक्षसे रहित जीव, [ समयप्रतिबद्धः ] समयसे प्रतिबद्ध होता हुआ ( अर्थात् चित्स्वरूप आत्माका अनुभव करता हुआ), [द्वयोः अपि] दोनों ही [ नययोः ] नयोंके [ भणितं ] कथनको [ केवलं तु] मात्र [ जानाति ] जानता ही है [ तु] परंतु [ नयपक्षं] नयपक्षको [ किञ्चित् अपि] किंचित्मात्र भी [ न गृह्णाति] ग्रहण नहीं करता। टीका:-जैसे केवली भगवान, विश्वके साक्षीपनके कारण, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही मात्र जानते हैं परंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल केवलज्ञान के द्वारा सदा स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होनेसे, श्रुतज्ञानकी भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा (अर्थात् श्रुतज्ञानकी भूमिकाको पार कर चुकनेके कारण) समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर हुवे होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते, इसीप्रकार जो (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशमसे जो उत्पन्न होते हैं ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होनेपर भी परका ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही केवल जानते हैं परंतु, अति तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिसे ग्रहण किये गये निर्मल , नित्य-उदित, चिन्मय समयसे प्रतिबद्धता के द्वारा (अर्थात् चैतन्यमय आत्माके अनुभवन द्वारा) अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुवे होनेसे, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोंकी भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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