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कर्ता-कर्म अधिकार
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( वसन्ततिलका) स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्। अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्।।९० ।।
( रथोद्धता) इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोचलविकल्पवीचिभिः। यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः।। ९१ ।।
पक्षातिक्रान्तस्य किं स्वरूपमिति चेत्
जीवमें अनेक साधारण धर्म हैं परंतु चित्स्वभाव उसका प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म है इसलिये उसे मुख्य करके यहाँ जीवको चित्स्वरूप कहा है। ८९ ।
अब उपरोक्त २० कलशोंके कथनका उपसंहार करते हैं:
श्लोकार्थ:- [एवं] इसप्रकार [ स्वेच्छा-समुच्छलद्-अनल्प-विकल्पजालाम् ] जिसमें बहुतसे विकल्पोंका जाल अपने आप उठता है ऐसी [ महतीं] बड़ी [नयपक्षकक्षाम् ] नयपक्षकक्षाको (नपपक्षकी भूमिको) [व्यतीत्य] उल्लंघन करके (तत्त्ववेत्ता) [अन्तः बहिः] भीतर और बाहर [ समरसैकरसस्वभावं] समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे [ अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम् ] अनुभूतिमात्र एक अपने भावको (-स्वरूपको) [ उपयाति ] प्राप्त करता है। ९०।
अब नयपक्षकी त्यागकी भावनाका अन्तिम काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पुष्कल-उत्-चल-विकल्प-वीचिभिः उच्छलत् ] विपुल , महान, चंचल विकल्परूपी तरंगोंके द्वारा उड़ते हुए [ इदम् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम् ] इस समस्त इंद्रजालको [ यस्य विस्फुरणम् एव ] जिसका स्फुरण मात्र ही [ तत्क्षणं ] तत्क्षण [अस्यति] उड़ा देता है [ तत् चिन्महः अस्मि ] वह चिन्मात्र तेजःपुंज मैं हूँ।
भावार्थ:-चैतन्यका अनुभव होनेपर समस्त नयोंका विकल्परूपी इंद्रजाल उसी क्षण ही विलय को प्राप्त होता है; ऐसा चित्प्रकाश मैं हूँ। ९१ । 'पक्षातिक्रान्तका स्वरूप क्या है ?'-इसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं:
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