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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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( रथोद्धता) यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम्। व्यावहारिकदृशैव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात्।। २१४ ।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु।। ३५६ ।।
श्लोकार्थ:- [ वस्तु] एक वस्तु [ स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः] स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तुका [ किञ्चन अपि कुरुते] कुछ भी कर सकती है[ यत् तु] ऐसा जो माना जाता है, [तत् व्यावहारिक-दृशा एव मतम् ] वह व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है। [ निश्चयात् ] निश्चयसे [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति] इस लोकमें अन्य वस्तुको अन्य वस्तु कुछ भी नहीं है ( अर्थात् एक वस्तुको अन्य वस्तु के साथ कुछ भी संबंध नहीं ) है।
भावार्थ:-एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहना कि 'अन्य द्रव्यने यह किया', वह यह व्यवहारनयकी दृष्टिसे ही है; निश्चयसे तो उस द्रव्यमें अन्य द्रव्यने कुछ भी नहीं किया है। वस्तु पर्यायस्वभावके कारण वस्तुका अपना ही एक अवस्थासे दूसरी अवस्थारूप परिणमन होता है; उसमें अन्य वस्तु अपना कुछ भी नहीं मिला सकती।
इससे यह समझना चाहिये कि-परद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थ उनके भावसे परिणमित होते हैं और ज्ञायक आत्मा अपने भावरूप परिणमन करता है; वे एक दूसरे का परस्पर कुछ नहीं कर सकते। इसलिये यह व्यवहार से ही माना जाता है कि 'ज्ञायक परद्रव्योंको जानता हैं' निश्चयसे ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है। २१४ ।
(खड़िया मिट्टी अर्थात् पोतनेका चूना या कलई तो खड़िया मिट्टी ही है' यह निश्चय है; 'खड़िया-स्वभावसे परिणमित खड़िया दीवाल-स्वभावरूप परिणमित दीवाल को सफेद करती है' यह कहना भी व्यवहार कथन है। इसीप्रकार ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ही है' यह निश्चय है: 'जायकस्वभावरूप परिणमित जायक परद्रव्यस्वभारू परद्रव्योंको जानता है' यह कहना भी व्यवहारकथन है।) ऐसे निश्चय-व्यवहार कथनको अब गाथाओं द्वारा दृष्टांतपूर्वक स्पष्ट कहते हैं:
ज्यों सेटिका नहिं अन्यकी, है सेटिका बस सेटिका । ज्ञायक नहीं त्यों अन्यका, ज्ञायक अहो ज्ञायक तथा ।। ३५६ ।।
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