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कर्ता-कर्म अधिकार
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व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वयमन्तर्व्यापकं भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणमति तथैवोत्पद्यते च; ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः।।
(स्रग्धरा) ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात्। अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः।। ५० ।।
व्याप्यलक्षणवाले अपने स्वभावरूप कर्म (कर्ताके कार्य), में ( वह पुद्गलद्रव्य) स्वयं अंतर्व्यापक होकर आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसी को ग्रहण करता है, उसीरूप परिणमित होता है और उसी-रूप उत्पन्न होता है; इसलिये जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको नहीं जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणाम-स्वरूप कर्म, उसे नहीं करता होनेसे, उस पुद्गलद्रव्यको जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।
भावार्थ:-कोई ऐसा समझे कि पुद्गल जो कि जड़ है और किसी को नहीं जानता उसका जीवके साथ कर्ताकर्मपना होगा, परंतु ऐसा भी नहीं। पुद्गलद्रव्य जीवको उत्पन्न नहीं कर सकता, परिणमित नहीं कर सकता तथा ग्रहण नहीं कर सकता इसलिये उसका जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है। परमार्थसे किसी भी द्रव्यका किसी अन्य द्रव्यके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानी] ज्ञानी तो [इमां स्वपरपरिणतिं] अपनी और परकी परिणतिको [जानन् अपि] जानता हुआ प्रवर्तता है [च] और [ पुद्गलः अपि अजानन् ] पुद्गलद्रव्य अपनी और परकी परिणतिको न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात् ] इसप्रकार इनमें सदा अत्यंत भेद होनेसे (दोनों भिन्न द्रव्य होनेसे), [ अन्तः ] वे दोनों परस्पर अंतरंगमें [ व्याप्तृव्याप्यत्वम् ] व्याप्यव्यापकभाव को [ कलयितुम् असहौ] प्राप्त होने में असमर्थ हैं। [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः] जीवपुद्गलके कर्ताकर्मभाव है ऐसी भ्रमबुद्धि [ अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [ तावत् भाति] वहाँ तक भासित होती है कि [यावत् ] जहाँ-तक [विज्ञानार्चिः] (भेदज्ञान करनेवाली) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं] करवतकी भाँति निर्दयतासे ( उग्रता से) [ सद्यः भेदम् उत्पाद्य] जीव-पुद्गलका तत्काल भेद उत्पन्न करके [ न चकास्ति] प्रकाशित नहीं होती।
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