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समयसार
जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्
ण विपरिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । पोग्गलदव्वं पि तहा परिणमदि सएहिं भावेहिं ।। ७९ ।। नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः ।। ७९ ।।
यतो जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाप्यजानत्पुद्गलद्रव्यं स्वयमन्तर्व्यापकं भूत्वा परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, किन्तु प्राप्यं विकार्यं निवृर्त्यं च
भावार्थ:- जैसा की ७६ वीं गाथामें कहा था तद्नुसार यहाँ भी जान लेना । वहाँ ‘पुद्गलकर्मको जाननेवाला ज्ञानी' कहा था और यहाँ उसके बदले में ‘पुद्गलकर्मके फलको जाननेवाला ज्ञानी' ऐसा कहा है- इतना विशेष है।
अब प्रश्न करता है कि जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणाम के फलको नहीं जाननेवाले ऐसे पुद्गलद्रव्यका जीवके साथ कर्ताकर्मभाव है या नहीं ? इसका उत्तर कहते हैं:
इस भाँति पुद्गलद्रव्य भी, निज भावेसे ही परिणमे । परद्रव्यपर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।। ७९ ।।
गाथार्थ:- [ तथा ] इसप्रकार [ पुद्गलद्रव्यम् अपि ] पुद्गलद्रव्य भी [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यके पर्यायरूप [ न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [ न उत्पद्यते ] उस रूप उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि वह [ स्वकैः भावैः ] अपने ही भावोंसे ( - भावरूपसे ) [ परिणमति ] परिणमन
करता है।
टीका:-जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त हो कर घड़ेको ग्रहण करती है, घड़ेरूप परिणमित होती है और घड़ेरूप उत्पन्न होती है उसी प्रकार जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य स्वयं परद्रव्यके परिणाममें अंतर्व्यापक होकर, आदिमध्य और अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस रूप परिणमित नहीं होता और उस रूप उत्पन्न नहीं होता; परंतु प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जो
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