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पूर्वरंग
३७
या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः, सा त्वनुभूतिरात्मैव; इत्यात्मैक एव प्रद्योतते। कथं यथोदितस्यात्मनोऽनुभूतिरिति चेद्बद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात्। तथा हि
__यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानता-यामभूतार्थम्, तथात्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
यथा च मृत्तिकायाः करककरीरकर्करीकपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् , तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेकमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
टीका:- निश्चयसे अबद्ध-अस्पृष्ट , अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त-ऐसे आत्माकी अनुभूति शुद्धनय है, और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार आत्मा एक ही प्रकाशमान है। (शुद्धनय, आत्माकी अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग नहीं ।) यहाँ शिष्य पूछता है कि जैसा ऊपर कहा है वैसे आत्माकी अनुभूति कैसे हो सकती है ? उसका समाधान यह है:- बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव अभूतार्थ हैं इसलिये यह अनुभूति हो सकती है। इस बातको दृष्टांतसे प्रगट करते हैं:
जैसे कमलिनी-पत्र जलमें डूबा हुआ हो तो उसका जलसे स्पर्शित होने रूप अवस्थासे अनुभव करनेपर जलसे स्पर्शित होना भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि जलसे किंचित् मात्र भी न स्पर्शित होने योग्य कमलिनी-पत्रके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर जलसे स्पर्शित होना अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार अनादि कालसे बँधे हुए आत्माका, पुद्गलकर्मोंसे बँधने- स्पर्शितहोनेरूप अवस्थासे अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि पुद्गलसे किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है।
तथा, जैसे मिट्टीका ढक्कन, घड़ा, झारी इत्यादि पर्यायोंसे अनुभव करनेपर अन्यत्व भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि सर्वत: अस्खलित (–सर्व पर्याय-भेदोंसे किंचित्- मात्र भी भेदरूप न होने वाले ऐसे) एक मिट्टीके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, नारक आदि पर्यायोंसे अनुभव करनेपर (पर्यायोंके अन्य-अन्यरूपसे ) अन्यत्व भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि सर्वतः अस्खलित ( सर्व पर्यायभेदोंसे किंचित्मात्र भेदरूप न होने वाले) एक चैतन्याकार आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर अन्यत्व अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है।
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