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समयसार
(उपजाति) आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्। विलीनसङ्कल्पविकल्पजालं
प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति।। १० ।। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।।१४ ।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम्। अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि।। १४ ।।
श्लोकार्थ:- [शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति] शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है। वह आत्मस्वभावको [ परभावभिन्नम्] परद्रव्य, परद्रव्यके भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विभाव-ऐसे परभावोंसे भिन्न प्रगट करता है। और वह, [आपूर्णम् ] आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूपसे पूर्ण है-समस्त लोकालोकका ज्ञाता है-ऐसा प्रगट करता है; (क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे हैं, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं)। और वह, [ आदि-अन्त- विमुक्तम् ) आत्मस्वभावको आदि-अंतसे रहित प्रगट करता है ( अर्थात् किसी आदिसे लेकर जो किसीसे उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसीसे जिसका विनाश नहीं होता ऐसे पारिणामिक भावको प्रगट करता है)। और वह, [ एकम् ] आत्मस्वभावको एकसर्व भेदभावोंसे (द्वैतभावोंसे ) रहित एकाकार प्रगट करता है, और [ विलीन-सङ्कल्पविकल्प-जालं] जिसमें समस्त संकल्प-विकल्पके समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है। (द्रव्यकर्म , भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योंमें अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें भेद ज्ञात होना सो विकल्प है।) ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है।। १०।। उस शुद्धनयको गाथासूत्रसे कहते हैं:
अनबद्धस्पृष्ट , अनन्य अरु, जो नियत देखे आत्मको। अविशेष, अनसंयुक्त उसको शुद्धनय तू जानजो।।१४।।
गाथार्थ:- [यः ] जो नय [आत्मानम् ] आत्माको [ अबद्धस्पृष्टम् ] बंध रहित और परके स्पर्शसे रहित, [अनन्यकं ] अन्यत्व रहित, [ नियतम् ] चलाचलता रहित, [ अविशेषम् ] विशेष रहित, [ असंयुक्तं ] अन्यके संयोगसे रहित-ऐसे पांच भावरूपसे [ पश्यति ] देखता है [ तं] उसे , हे शिष्य! तू [ शुद्धनयं ] शुद्धनय [ विजानीहि ] जान।
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