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पूर्वरंग
( मालिनी ) उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।। ९ ।।
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रहता। तत्पश्चात् तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है, वहाँ भी कोई आलंबन नहीं है। इसप्रकार सिद्ध अवस्थामें प्रमाण - नय - निक्षेपका अभाव ही है। इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ :- आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते हैं कि - [ अस्मिन् सर्वङ्कपे धाम्नि अनुभवम् उपयाते ] इन समस्त भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयका विषयभूत चैतन्य–चमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर [ नयश्रीः न उदयति] नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [ प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [ अपि च ] और [ निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोंका समूह कहाँ चला जाता है सो हम नहीं जानते । [ किम् अपरम् अभिदध्मः ] इससे अधिक क्या कहें ? [ द्वैतम् एव न भाति ] द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता ।
भावार्थ:- भेदको अत्यंत गौण करके कहा है कि प्रमाण, नयादि भेदकी तो बात ही क्या ? शुद्ध अनुभवके होनेपर द्वैत ही भासित नहीं होता, एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है।
उत्तरः
यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांती कहते हैं कि - अन्तमें परमार्थरूप तो अद्वैत का ही अनुभव हुआ। यही हमारा मत है; इसमें आपने विशेष क्या कहा? इसका : - तुम्हारे मतमें सर्वथा अद्वैत माना जाता है । यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्य वस्तुका अभाव ही हो जाये, और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मतमें नयविवक्षा है जो कि बाह्य वस्तुका लोप नहीं करती। जब शुद्ध अनुभवसे विकल्प मिट जाता है तब आत्मा परमानंदको प्राप्त होता है इसलिये अनुभव कराने के लिये यह कहा है कि “ शुद्ध अनुभवमें द्वैत भासित नहीं होता " । यदि बाह्य वस्तुका लोप किया जाये तो आत्माका भी लोप हो जायेगा और शून्यवादका प्रसङ्ग आयेगा। इसलिये जैसा तुम कहते हो उस प्रकारसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती और वस्तुस्वरूपकी यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है वह भी मिथ्यारूप है; शून्यका प्रसङ्ग होनेसे तुम्हारा अनुभव भी आकाश - कुसुमके अनुभव के समान है ।। ९।। आगे शुद्धनयका उदय होता है उसकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं:
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