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समयसार
नयस्तु द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च। तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिकः, पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायार्थिकः। तदुभयमपि द्रव्यपर्याययो: पर्यायेणानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तुमात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्। निक्षेपस्तु नाम स्थापना द्रव्यं भावश्च। तत्रातद्गुणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम। सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधिव्यवस्थापनं स्थापना। वर्तमानतत्पर्याया- दन्यद् द्रव्यम्। वर्तमानतत्पर्यायो भावः। तच्चतुष्टयं स्वस्वलक्षणवैलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च निर्विलक्षणस्वलक्षणैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्। अथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जीव एव प्रद्योतते।
नय दो प्रकारके हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुमें द्रव्यका मुख्यतासे अनुभव कराये सो द्रव्यार्थिक नय है और पर्यायका मुख्यता से अनुभव कराये सो पर्यायार्थिक नय है। यह दोनों नय द्रव्य और पर्यायका पर्यायसे ( भेदसे , क्रमसे ) अनुभव करनेपर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और द्रव्य तथा पर्याय दोनोंसे अनालिंगित (आलिंगन नहीं किया हुआ) शुद्धवस्तुमात्र जीवके (चैतन्यमात्र) स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं।
निक्षेप के चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। वस्तुमें जो गुण न हो उस गुणके नामसे ( व्यवहारके लिये) वस्तुकी संज्ञा करना सो नाम निक्षेप है। 'यह वह है' इसप्रकार अन्य वस्तुमें अन्य वस्तुका प्रतिनिधित्व स्थापित करना (-प्रतिमारूप स्थापन करना) सो स्थापना निक्षेप है। वर्तमानसे अन्य अर्थात् अतीत अथवा अनागत पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो द्रव्य निक्षेप है। वर्तमान पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो भाव निक्षेप है। इन चारों निक्षेपोंका अपने अपने लक्षणभेदसे ( विलक्षणरूपसे-भिन्न भिन्न रूपसे) अनुभव किये जानेपर वे भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं;
और भिन्न लक्षणसे रहित एक अपने चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावका अनुभव करनेपर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसप्रकार इन प्रमाण-नय-निक्षेपोमें भूतार्थरूपसे एक जीव ही प्रकाशमान है।
भावार्थ:- इन प्रमाण, नय, निक्षेपोंका विस्तारसे कथन तद्विषयक ग्रंथोंसे जानना चाहिये; उनसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि होती है। वे साधक अवस्थामें तो सत्यार्थ ही हैं क्योंकि वे ज्ञानके ही विशेष हैं। उनके बिना वस्तुको चाहे जैसे साधा जाये तो विपर्यय हो जाता है। अवस्थानुसार व्यवहारके अभावकी तीन रीतियाँ हैं: प्रथम अवस्थामें प्रमाणादिसे यथार्थ वस्तुको जानकर ज्ञान-श्रद्धानकी सिद्धि करना; ज्ञान-श्रद्धानके सिद्ध होनेपर श्रद्धानके लिये प्रमाणादिकी कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु अब यह दूसरी अवस्थामें प्रमाणादिके आलंबनसे विशेष ज्ञान होता है और राग-द्वेष-मोहकर्मका सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है; उससे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। केवलज्ञान होनेके पश्चात् प्रमाणादिका आलंबन नहीं
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