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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार यतो जीवपरिणामं निमित्तीकृत्य पुद्गलाः कर्मत्वेन परिणमन्ति, पुद्गलकर्म निमित्तीकृत्य जीवोऽपि परिणमतीति जीवपुद्गलपरिणाम-योरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेऽपि जीवपुद्गलयोः परस्परं पुद्गलकर्मणोऽपि व्याप्यव्यापक-भावाभावाज्जीवस्य जीवपरिणामानां १४९ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतर पुद्गलपरिणामानां कर्तृकर्मत्वासिद्धौ निमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः; ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जीवः स्वभावस्य कर्ता कदाचित्स्यात्, मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात्पुद्गलभावनां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः। [ परिणमति ] परिणमन करता है । [ जीवः ] जीव [कर्मगुणान् ] कर्मके गुणोंको [न अपि करोति ] नहीं करता [ तथा एव ] उसी तरह [ कर्म ] कर्म [ जीवगुणान् ] जीवके गुणोंको नहीं करता; [तु] परंतु [ अन्योऽन्यनिमित्तेन ] परस्पर निमित्तसे [ द्वयोः अपि ] दोनोंके [ परिणामं ] परिणाम [ जानीहि ] जानों । [ एतेन कारणेन तु ] इस कारणसे [ आत्मा ] आत्मा [ स्वकेन ] अपने ही [ भावेन ] भावसे [ कर्ता ] कर्ता (कहा जाता ) है [तु] परंतु [ पुद्गलकर्मकृतानां ] पुद्गलकर्मसे किये गये [ सर्वभावानाम् ] समस्त भावोंका [ कर्ता न ] कर्ता नहीं है। टीका:-— जीवपरिणामको निमित्त करके पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गलकर्मको निमित्त करके जीव भी परिणमित होते हैं' - इसप्रकार जीवके परिणामके और पुद्गलके परिणामके परस्पर हेतुत्व का उल्लेख होनेपर भी जीव और पुद्गलमें परस्पर व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको पुद्गलपरिणामोंके साथ और पुद्गलकर्मको जीवपरिणामोंके साथ कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे, परस्पर निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंके परिणाम (होता) है; इसलिये, जैसे मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है (अर्थात् जैसे मिट्टी ही घड़ा बनाती है) उसीप्रकार अपने भाव से अपना भाव किया जाता है इसलिये, जीव अपने भावका कर्ता कदाचित् होता है, परंतु जैसे मिट्टीसे कपड़ा नहीं किया जा सकता उसीप्रकार अपने भावसे परभाव का किया जाना अशक्य है इसलिये (जीव ) पुद्गलभावोंका कर्ता तो कदापि नहीं हो सकता यह निश्चय है। मात्र भावार्थ:-जीवके परिणामके और पुद्गलके परिणामके परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना है तो भी परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं है । परके निमित्तसे जो अपने भाव हुए उनका कर्ता तो जीवको अज्ञानदशामें कदाचित् कह भी सकते हैं, परंतु जीव परभावका कर्ता कदापि नहीं है । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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