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बंध अधिकार
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( उपजाति) न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः। तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।।१७५ ।।
(अनुष्टुभ् ) इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः। रागादीन्नात्मनः कुर्यात्नातो भवति कारकः।। १७६ ।।
ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा। सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ।। २८० ।।
श्लोकार्थ:- [ यथा अर्ककान्तः ] सूर्यकांतमणिकी भाँति (-जैसे सूर्यकांतमणि स्वतःसे ही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमनमें सूर्य बिंब निमित्त है, उसीप्रकार) [ आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति] आत्मा अपनेको रागादिका निमित्त कभी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसङ्गः एव ] उसमें निमित्त परसंग ही (-परद्रव्यका संग ही) है।- [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत् ] ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है। ( सदा वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, इसे किसी ने बनाया नहीं है।) १७५।
‘ऐसे वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी रागादिको निजरूप नहीं करता' इस अर्थका, तथा आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति ] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको जानता है [ तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति] अतः वह (रागादिका) कर्ता नहीं है। १७६।
अब , इसीप्रकार गाथा द्वारा कहते हैं :
कभि रागद्वेषविमोह अगर कषायभाव जु निज विर्षे । ज्ञानी स्वयं करता नहीं, इससे न तत्कारक बने ।। २८०।।
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