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समयसार
४०८
न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा। स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम्।। २८० ।।
यथोक्तं वस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादिभावैः स्वयं न परिणमते, न परेणापि परिणम्यते, ततष्टकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानामकतैवेति प्रतिनियमः।
(अनुष्टुभ् ) इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः। रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः।। १७७ ।।
गाथार्थ:- [ज्ञानी] ज्ञानी [ रागद्वेषमोहं] रागद्वेषमोहका [ वा कषायभावं] अथवा कषायभावको [ स्वयम् ] अपनेआप [आत्मनः ] अपनेमें [ न च करोति] नहीं करता [ तेन ] इसलिये [ सः ] वह , [ तेषां भावानाम् ] उन भावोंका [ कारकः न ] कारक अर्थात् कर्ता नहीं है।
टीका:-यथोक्त ( अर्थात् जैसा कहा वैसा) वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी ( अपने) शुद्धस्वभावसे ही च्युत नहीं होता इसलिये वह राग-द्वेष-मोह आदि भावरूप अवत: परिणमित नहीं होता और दूसरे के द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता, इसलिये टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है-ऐसा नियम है।
भावार्थ:-आत्मा जब ज्ञानी हुआ तब उसने वस्तुका ऐसा स्वभाव जाना कि 'आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है-द्रव्यदृष्टिसे अपरिणमनस्वरूप है, पर्यायदृष्टिसे परद्रव्यके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित होता है'; इसलिये अब ज्ञानी स्वयं उन भावोंका कर्ता नहीं होता, जो उदय आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है।
'अज्ञानी ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता इसलिये वह रागादि भावोंका कर्ता होता है' इस अर्थका , आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति] अज्ञानी अपने ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता [ तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको (-रागादिभावोंको) अपना करता है, [अतः कारक: भवति ] अतः वह उनका कर्ता होता है। १७७।
अब इसी अर्थकी गाथा कहते हैं:
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