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बंध अधिकार
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रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा। तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदि पुणो वि।। २८१ ।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः।। तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि।। २८१ ।।
यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव, ततः कर्मविपाकप्रभवै रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः।
ततः स्थितमेतत्
पर राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त होवें भाव जो।
उन-रूप जो जीव परिणमे फिर बाँधता रागादिको ।। २८१।। गाथार्थ:- [ रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और कषायकर्मोके होनेपर ( अर्थात् उसके उदय होनेपर ) [ये भावाः ] जो भाव होते हैं [ तैः तु] उनरूप [परिणममान: ] परिणमित होता हुआ ( अज्ञानी) [ रागादीन् ] रागादिको [पुन: अपि ] पुनः पुनः [ बध्नाति ] बाँधता है।
टीका:-यथोक्त वस्तुस्वभावको न जानता हुआ अज्ञानी अनादि संसार से लेकर (अपने) शुद्धस्वभावसे च्युत ही है इसलिये कर्मोदयसे उत्पन्न रागद्वेषमोहादि भावरूप परिणमता हुआ अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोंका कर्ता होता हुआ (कर्मोंसे) बद्ध होता ही है-ऐसा नियम है।
भावार्थ:-अज्ञानी वस्तुस्वभावको तो यथार्थ नहीं जानता और कर्मोदयसे जो भाव होते हैं उन्हें अपना समझकर परिणमता है, इसलिये वह उनका कर्ता होता हुआ पुनः पुनः आगामी कर्मोंको बाँधता है-ऐसा नियम है।
___ “अतः यह सिद्ध हुआ (अर्थात् पूर्वोक्त कारणसे निम्नप्रकार निश्चित हुआ) " ऐसा अब कहते हैं:
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