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समयसार
४१०
रागम्हि य दासम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा। तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा।। २८२ ।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः। तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता।। २८२ ।।
य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एव भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बन्धहेतुरिति।
कथमात्मा रागादीनामकारक एवेति चेत्
यों राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त होवें भाव जो।
उन-रूप आत्मा परिणमें , वो बांधता रागादिको ।। २८२।। गाथार्थ:- [ रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और कषायकर्मों के होने पर ( अर्थात् उनके उदय होनेपर) [ये भावाः] जो भाव होते हैं [ तै: तु] उन-रूप [ परिणममान:] परिणमता हुआ [ चेतयिता] आत्मा [ रागादीन् ] रागादिको [ बध्नाति ] बाँधता है।
टीका:-निश्चयसे अज्ञानीको, पुद्गलकर्म जिनका निमित्त है ऐसे जो यह रागद्वेषमोहादि परिणाम हैं, वे ही पुनः रागद्वेषमोहादि परिणामके निमित्त जो पुद्गलकर्म उसके बंधके कारण है।
भावार्थ:-अज्ञानीके कर्मके निमित्तसे जो रागद्वेषमोह आदि परिणाम होते हैं वे ही पुनः आगामी कर्मबंधके कारण होते हैं।
अब प्रश्न होता है कि आत्मा रागादिका अकारक ही कैसे है ? इसका समाधान (आगम प्रमाण देकर) करते हैं:
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