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समयसार
४०६
यथा खलु केवलः स्फटिकोपलः, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते; तथा केवल: किलात्मा, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते। इति तावद्वस्तुस्वभावः।।
टीका:-जैसे वास्तवमें केवल (-अकेला) स्फटिकमणि, स्वयं परिणमन स्वभाववाला होनेपर भी, अपनेको शुद्धस्वभावत्व के कारण रागादिका निमित्तत्व न होनेसे (स्वयं अपनेमें ललाई-आदिरूप परिणमनका निमित्त न होनेसे ) अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता, किन्तु जो अपने आप रागादिभावको प्राप्त होनेसे स्फटिकमणिके रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्यके द्वारा ही , शुद्धस्वभावसे च्युत होता हुआ, रागादिरूप परिणमित किया जाता है; इसीप्रकार वास्तवमें केवल (अकेला) आत्मा, स्वयं परिणमन-स्वभाववाला होने पर भी, अपने शुद्धस्वभावत्वके कारण रागादिका निमित्तत्व न होनेसे (स्वयं अपनेको रागादिरूप परिणमनका निमित्त न होने से) अपने आप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परंतु जो अपने आप रागादिभावको प्राप्त होनेसे आत्माको रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्य के द्वारा ही, शुद्धस्वभावसे च्युत होता हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है।
भावार्थ:-स्फटिकमणि स्वयं तो मात्र एकाकार शुद्ध ही है; वह परिणमन स्वभाववाला होनेपर भी अकेला अपने आप ललाई-आदिरूप नहीं परिणमता किन्तु लाल आदि परद्रव्यके निमित्तसे (स्वयं ललाई-आदिरूप परिणमते ऐसे परद्रव्यके निमित्तसे) ललाई-आदिरूप परिणमता है। इसीप्रकार आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है; वह परिणमन स्वभाववाला होने पर भी अकेला अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता परंतु रागादिरूप परद्रव्यके निमित्तसे (-अर्थात् स्वयं रागादिरूप परिणमन करनेवाले परद्रव्यके निमित्तसे) रागादिरूप परिणमता है। ऐसा वस्तुका ही स्वभाव है। उसमें अन्य कोई तर्कको अवकाश नहीं है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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