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________________ ४६४ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार एवमेव मिथ्यादृष्टिर्ज्ञानी निःसंशयं भवत्येषः । यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ।। ३२६ ।। तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम् । परद्रव्ये जानन् जानीयात् दृष्टिरहितानाम् ।। ३२७ ।। अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढाः परद्रव्यं ममेदमिति पश्यन्ति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यन्ति । ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममांय ग्राम इति पश्यन् मिथ्यादृष्टिः तथा यदि ज्ञान्यपि कथञ्चिद् व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्यादृष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात् । [ एवम् एव ] इसीप्रकार [ यः ज्ञानी ] जो ज्ञानी भी [ परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा है' [इति जानन् ] ऐसा जानता हुआ [ आत्मानं करोति ] परद्रव्यको निजरूप करता है, [एषः] वह [ निःसंशयं ] निःसंदेह अर्थात् निश्चयतः [ मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [ भवति ] होता है। 1 [तस्मात्] इसलिये तत्त्वज्ञ [ न मे इति ज्ञात्वा ] ' परद्रव्य मेरा नहीं है' यह जानकर, [ एतेषां द्वयेषाम् अपि ] इन दोनोंका ( - लोकका और श्रमणका - ) [परद्रव्ये] परद्रव्यमें [कर्तृव्यवसायं जानन् ] कर्तृत्वके व्यवसायको जानते हुए, [ जानीयात् ] यह जानते हैं कि [ दृष्टिरहितानाम् ] यह व्यवसाय सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषोंका है। टीका:- अज्ञानीजन ही व्यवहारविमूढ़ ( व्यवहारमें ही विमूढ़ ) होनेसे परद्रव्यको ऐसा देखते मानते हैं कि 'यह मेरा है'; और ज्ञानीजन निश्चयप्रतिबुद्ध ( निश्चयके ज्ञाता) होनेसे परद्रव्यकी कणिकामात्रको भी 'यह मेरा है' ऐसा नहीं देखते मानते। इसलिये, जैसे इस जगतमें कोई व्यवहारविमूढ़ ऐसा दूसरेके गाँवमें रहनेवाला मनुष्य ‘यह ग्राम मेरा है' इसप्रकार देखता - मानता हुआ मिथ्यादृष्टि ( - विपरीत दृष्टिवाला ) है । उसीप्रकार ज्ञानी भी किसी प्रकारसे व्यवहारविमूढ़ होकर परद्रव्यको 'यह मेरा है' इसप्रकार देखे माने तो उस समय वह भी निःसंशयतः अर्थात् निश्चयतः, परद्रव्यको निजरूप करता हुआ, मिथ्यादृष्टि ही होता है। इसलिये तत्त्वज्ञ पुरुष 'समस्त परद्रव्य मेरा नहीं है' यह जानकर, 'यह सुनिश्चिततया जानता है कि- लोक और श्रमणदोनोंके जो यह परद्रव्यमें कर्तृत्वका व्यवसाय है वह उनकी सम्यग्दर्शनरहितताके कारण ही है'। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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