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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
( वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।। २०१ ।। ( वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः। कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्मकर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।। २०२ ।।
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भावार्थ:-जो व्यावहारसे मोही होकर परद्रव्यके कर्तृत्वको मानते हैं, वेलौकिक जन हों या मुनिजन हों - मिथ्यादृष्टि ही हैं। यदि ज्ञानी भी व्यवहारमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘अपना’ मानता है, तो वह मिथ्यादृष्टि ही होता है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ यतः ] क्योंकि [ इह ] इस लोकमें [ एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्ध सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः ] एक वस्तुका अन्य वस्तुसे साथ सम्पूर्ण संबंध ही निषेध किया गया है, [ तत् ] इसलिये [ वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ [ कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] कर्ताकर्मघटना नहीं होती - [ मुनयः च जनाः च] इसप्रकार मुनिजन और लौकिक जन [ तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको (वस्तुके यथार्थ स्वरूपको) अकर्ता देखो, ( - यह श्रद्वामें लाओ कि कोई किसी का कर्ता नहीं है, परद्रव्य परका अकर्ता ही है ) । २०१ ।
“जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम नहीं जानते वे अज्ञानी होते हुए कर्मको करते हैं; इसप्रकार भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही होता है । ” – इस अर्थका एवं, आगामी गाथाओंका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- ( आचार्यदेव खेदपूर्वक कहते हैं कि: ) [ बत ] अरे ! [ ये तु इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभावसे नियमको नहीं जानते [ ते वराका: ] वे बिचारे, [ अज्ञानमग्नमहस: ] जिनका ( पुरुषार्थरूप - पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [ कर्म कुर्वन्ति ] कर्मको करते हैं; [ ततः एव हि ] इसलिये [ भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ] भावकर्मका कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्य: न] अन्य कोई नही।
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