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समयसार
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मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं। तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो।। ३२८ ।। अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं। तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।। ३२९ ।। अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं। तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं ।। ३३० ।। अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं। तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा।। ३३१ ।।
भावार्थ:-वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ अज्ञानी (-मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभावमें परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं। २०२।
अब , (जीवके) जो मिथ्यात्वभाव होता है उसका कर्ता कौन है ?'-इस बातकी भली भाँति चर्चा करके, ‘भावकर्मका कर्ता (अज्ञानी) जीव ही है' यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हैं:
मिथ्यात्व प्रकृति ही अगर, मिथ्यात्वि जो जीव को करे । तो तो अचेतन प्रकृति ही कारक बने तुझ मतविषे! ।। ३२८ ।। अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वको । तो तो बने मिथ्यात्वि पुद्गलद्रव्य , आत्मा नहिं बने ।। ३२९ ।। जो जीव अरु प्रकृति करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यको । तो उभयकृत जो होय तत्फल भोग भी हो उभयको ।। ३३० ।। जो प्रकृति नहिं, नहिं जीव करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यको। पुद्गलदरव मिथ्यात्व अकृत, क्या न वह मिथ्या कहो ? ।। ३३१ ।।
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