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बंध अधिकार
३८१
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।। २५७ ।। जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।। २५८ ।।
यो भ्रियते यश्च दुःखितो जायते कर्मोदयेन स सर्वः। तस्मात्तु मारितस्ते दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या।। २५७ ।। यो न भ्रियते न च दुःखितः सोऽपि च कर्मोदयेन चैव खलु। तस्मान्न मारितो नो दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या।। २५८ ।।
[ ते] वे पुरुष- [ अहंकृतिरसेन कर्माणि चिकीर्षवः ] जो कि इसप्रकार अहंकार-रससे कर्मो को करनेके इच्छुक हैं (अर्थात् 'मैं इन कर्मोको करता हूँ' ऐसे अहंकाररूपी रससे जो कर्म करने की-मारनेकी-जिलानेकी, सुखी-दुःखी करने की-वांछा करनेवाले हैं) वे- [नियतम् ] नियमसे [ मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति ] मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्माका घात करनेवाले हैं।
भावार्थ:-जो परको मारने-जिलाने का तथा सुख-दुःख करने का अभिप्राय रखते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं। वे अपने स्वरूपसे च्युतहोते हुए रागी, द्वेषी, मोही होकर स्वतः ही अपना घात करते हैं, इसलिये वे हिंसक हैं। १६९ ।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :मरता दुखी होता जु जीव सब कर्म उदयोंसे बने । मुझसे मरा अरु दुखि हुआ क्या मत न तुझ मिथ्या अरे! ।। २५७ ।। अरु नहिं मरे, नहिं दुखि बने, वे कर्म उदयों से बनें । 'मैंने न मारा दुखि करा'-क्या मत न तुझ मिथ्या अरे! ।। २५८ ।।
गाथार्थ:- [ यः म्रियते ] जो मरता है [ च ] और [ यः दुःखितः जायते ] जो दुःखी होता हैं [ सः सर्वः] वह सब [ कर्मोदयेन ] कर्मोदयसे होता है; [ तस्मात् तु] इसलिये [ मारितः च दुःखितः ] — मैंने मारा, मैंने दुःखी किया' [इति] ऐसा [ ते ] तेरा अभिप्राय [ न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
[च ] और [ यः न म्रियते ] जो न मरता है [ च ] और [ न दुःखितः] न दुःखी होता है [ सः अपि] वह भी [ खलु] वास्तवमें [ कर्मोदयेन च एव ] कर्मोदयसे ही होता है; [ तस्मात् ] इसलिये [ न मारितः च न दुःखितः ] 'मैंने नहीं मारा , मैंने दुःखी नहीं किया' [ इति ] ऐसा तेरा अभिप्राय [ न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
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