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समयसार
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ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात्। अतः सुखितदुःखितान् करोमि , सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्।
(वसन्ततिलका) सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवित दुःखसौख्यम्। अज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।।१६८ ।।
(वसन्ततिलका) अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्। कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।। १६९ ।।
इसलिये किसी भी प्रकारसे एक दूसरेको सुख-दुःख नहीं कर सकता। इसलिये यह अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है कि 'मैं पर जीवोंको सुखी-दुःखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं ।
भावार्थ:-जीवका जैसा आशय हो तदनुसार जगतमें कार्य न होते हों तो वह आशय अज्ञान है। इसलिये, सभी जीव अपने अपने कर्मोदयसे सुखी-दुःखी होते हैं वहाँ यह मानना कि 'मैं परको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर मुझे सुखी-दुःखी करता है', सो अज्ञान है। निमित्तनैमित्तिकभावके आश्रयसे (किसी को किसी के) सुखदुःखका करने वाला कहना सो व्यवहार है; जो कि निश्चयकी दृष्टिमें गौण है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस जगतमें [ मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ] जीवोंके मरण, जीवित, दुःख, सुख-[ सर्व सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति ] सब सदैव नियमसे (-निश्चितरूपसे) अपने कर्मोदयसे होता है; [ परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् कुर्यात् ] 'दुसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख, सुखको करता है' [ यत् तु] ऐसा जो मानना [ एतत् अज्ञानम् ] वह तो अज्ञान है। १६८।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करने वाला और आगामी कथनका सूचक काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ एतत् अज्ञानम् अधिगम्य ] इस (पूर्व कथित मान्यतारूप) अज्ञानको प्राप्त करके ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति ] जो पुरुष परसे परके मरण, जीवन, दुःख, सुखको देखते है अर्थात् मानते है,
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