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[परिशिष्टम् ]
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(शार्दूलविक्रीडित) अर्थालम्बनकाल एव कलयन् ज्ञानस्य सत्त्वं बहि ज़ैयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति। नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन्।। २५७ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः
सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ।। २५८ ।।
आत्माका नाश करता है। और स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थों के नष्ट होनेपर भी, अपना अस्तित्व अपने कालसे ही मानता हुआ नष्ट नहीं होता।
इसप्रकार स्वकाल-अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है। २५६। ( अब दशवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [अर्थ-आलम्बन-काले एव ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन् ] ज्ञेय पदार्थों के आलंबन कालमें ही ज्ञानका अस्तित्व जानता हुआ, [बहि:-ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन मनसा भ्राम्यन् ] बाह्य ज्ञेयोंके आलंबनकी लालसावाले चित्तसे ( बाहर ) भ्रमण करता हुआ [ नश्यति] नाशको प्रापत होता है; [ स्याद्वादवेदी पनुः ] और स्यादवादका ज्ञाता तो [ पर-कालतः अस्य नास्तित्वं कलयन् ] परकालसे आत्माका नास्तित्व जानता हुआ, [ आत्म-निखातनित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुजीभवन् ] आत्मामें दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज ज्ञानके एक पुंजरूप वर्तता हुआ [ तिष्ठति] टिकता है-नष्ट नहीं होता।
भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञेयोंके आलंबनकालमें ही ज्ञानका सत्पना जानता है इसलिये, ज्ञेयोके आलंबनमें मनको लगाकर बाहर भ्रमण करता हुआ नष्ट हो जाता है। स्याद्वादी तो पर ज्ञेयोंके कालसे अपने नास्तित्व को जानता है, अपने ही काल से अपने अस्तित्व को जानता है; इसलिये ज्ञेयोंसे भिन्न ऐसा ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ नाश को प्राप्त नहीं होता।
इसप्रकार परकाल की अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है। २५७। ( अब ग्यारहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [ परभाव-भावकलनात् ] परभावोंके भवन ( अस्तित्व–परिणमन) को ही जानता है,
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