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समयसार
२४०
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।। १५० ।।
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्प्राप्तः। एषो जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व ।। १५० ।।
यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागम: स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च।
(स्वागता) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्। तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः।। १०३ ।।
जीव रागी बांधे कर्मको, वैराग्यगत मुक्ति लहे । -ये जिनप्रभू उपदेश है नहिं रक्त हो तु कर्म से ।। १५०।।
गाथार्थ:- [ रक्त: जीव:] रागी जीव [कर्म] कर्म [ बध्नाति] बाँधता है [ विरागसम्प्राप्तः ] और वैराग्यको प्राप्त जीव [ मुच्यते] कर्मसे छूटता है- [ एषः ] यह [जिनोपदेशः ] जिनेन्द्र भगवानका उपदेश है; [तस्मात् ] इसलिये (हे भव्य जीव! ) तू [ कर्मसु ] कर्मों में [ मा रज्यस्व ] प्रीति-राग मत कर!
टीका:-" रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बाँधता है और विरक्त अर्थात् विरागी ही कर्मसे छूटता है ” ऐसा जो यह आगमवचन है सो, सामान्यतया रागीपनकी निमित्तता के कारण शुभाशुभ दोनों कर्मोंको अविशेषतया बंधके कारणरूप सिद्ध करता है और इसलिये दोनों कर्मोंका निषेध करता है।
इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ यद् ] क्योंकि [ सर्वविदः ] सर्वज्ञदेव [ सर्वम् अपि कर्म ] समस्त (शुभाशुभ ) कर्मको [अविशेषात् ] अविशेषतया [बन्धसाधनम् ] बंधका साधन (कारण) [ उशन्ति ] कहते हैं [ तेन ] इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने ) [ सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ] समस्त कर्मका निषेध किया है और [ ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं] ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। १०३ ।
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