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पुण्य-पाप अधिकार
यथा नाम कोऽपि पुरुषः कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय। वर्जयति तेन समकं संसर्गे रागकरणं च।। १४८ ।। एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा। वर्जयन्ति परिहरन्ति च तत्संसर्गे स्वभावरताः।। १४९ ।।
यथा खलु कुशलः कश्चिद्वनहस्ती स्वस्य बन्धाय उपसर्पन्तीं चटुलमुखीं मनोरमाममनोरमां वा करेणुकुट्टनी तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गों प्रतिषेधयति, तथा किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्य बन्धाय उपसर्पन्ती मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृतिं तत्त्वत: कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गों प्रतिषेधयति।
अथोभयं कर्म बन्धहेतुं प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति
गाथार्थ:- [ यथा नाम] जैसे [ कोऽपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ कुत्सितशीलं ] कुशील अर्थात् खराब स्वभाववाले [जनं] पुरुषको [ विज्ञाय ] जानकर [ तेन समकं] उसके साथ [ संसर्ग च रागकरणं] संसर्ग और राग करना [ वर्जयति] छोड़ देता है, [ एवम् एव च] इसीप्रकार [ स्वभावरताः ] स्वभावमें रत पुरुष [ कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं] कर्मप्रकृतिके शील-स्वभावको [ कुत्सितं] कुत्सित अर्थात् खराब [ ज्ञात्वा] जानकर [ तत्संसर्ग] उसके साथ संसर्ग [ वर्जयन्ति ] छोड़ देते हैं [ परिहरन्ति च ] और राग छोड़ देते हैं।
टीका:-जैसे कोई जंगलका कुशल हाथी अपने बंधनके लिये निकट आती हुई सुंदर मुखवाली मनोरम अथवा अमनोरम हथिनीरूपी कुट्टनीको परमार्थतः बुरी जानकर उसके साथ राग या संसर्ग नहीं करता, इसीप्रकार आत्मा अरागी ज्ञानी होता हुआ अपने बंधके लिये समीप आती हुई (उदयमें आती हुई) मनोरम या अमनोरम (शुभ या अशुभ ) -सभी कर्मप्रकृतियोंको परमार्थतः बुरी जानकर उनके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता।
भावार्थ:-हाथीको पकड़नेके लिये हाथिनी रखी जाती है, हाथी कामांध होता हुआ उस हथिनीरूपी कुट्टनीके साथ राग तथा संसर्ग करता है इसलिये वह पकड़ा जाता है और पराधीन होकर दुःख भोगता है, जो हाथी चतुर होता है वह उस हथिनीके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता; इसीप्रकार अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिको अच्छा समझकर उसके साथ राग तथा संसर्ग करते हैं इसलिये वे बंधमें पड़कर पराधीन बनकर संसारके दुःख भोगते हैं, और जो ज्ञानी होता है वह उसके साथ कभी भी राग तथा संसर्ग नहीं करता।
अब, आगमसे यह सिद्ध करते हैं कि दोनों कर्म बन्धके कारण हैं और निषेध्य हैं :---
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