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पुण्य-पाप अधिकार
२४१
(शिखरिणी) निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्म्य न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः। तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं । स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः।। १०४ ।।
अथः ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति--
परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तम्हि द्विदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।। १५१ ।।
जब कि समस्त कर्मोंका निषेध कर दिया गया तब फिर मुनियोंको किसकी शरण रही सो अब कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्माणि किल निषिद्धे ] शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म-ऐसे समस्त कर्मों का निषेध कर देनेपर [ नैष्कर्म्य प्रवृत्ते] निष्कर्म (निवृत्ति) अवस्थामें प्रवर्तमान, [ मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति ] मुनिजन कहीं अशरण नहीं हैं; [तदा] (क्योंकि) जब निष्कर्म अवस्था प्रवर्तमान होती है तब [ ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि] ज्ञानमें आचरण करता हुआ-रमण करता हुआपरिणमन करता हुआ ज्ञान ही [ एषां] उन मुनियोंको [शरणं] शरण है; [ एते] वे [ तत्र निरताः] उस ज्ञानमें लीन होते हुए [ परमम् अमृतं] परम अमृतका [ स्वयं] स्वयं [ विन्दन्ति ] अनुभव करते हैं-स्वाद लेते हैं।
भावार्थ:-किसी को यह शंका हो सकती है कि-जब सुकृत और दुष्कृतदोनोंको निषेध कर दिया गया है तब फिर मुनियोंको कुछ भी करना शेष नहीं रहता इसलिये वे किसके आश्रयसे या किस आलंबनके द्वारा मनित्वका पालन कर सकेंगे?' आचार्य देवने उसके समाधानार्थ कहा है कि:-समस्त कर्मोंका त्याग हो जाने पर ज्ञानका महा शरण है। उस ज्ञानमें लीन होनेपर सर्व आकुलतासे रहित परमानंदका भोग होता है जिसके स्वादको ज्ञानी ही जानते हैं। अज्ञानी कषायी जीव कर्मोंको ही सर्वस्व जानकर उन्हींमें लीन हो रहे हैं, वे ज्ञानानंदके स्वादको नहीं जानते। १०४।
अब यह सिद्ध करते हैं कि ज्ञान मोक्षका कारण हैं :--- परमार्थ है निश्चय , समय, शुध, केवली, मुनि, ज्ञानि है। तिष्ठे जु उसहि स्वभाव मुनिवर, मोक्षकी प्राप्ति करै ।। १५१ ।।
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