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समयसार
२१६
(उपजाति) एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७१ ।।
(उपजाति) एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७२ ।।
भावार्थ:-इस ग्रंथमें प्रथमसे ही व्यवहारनयनको गौण करके और शुद्धनयको मुख्य करके कथन किया गया है। चैतन्यके परिणाम परनिमित्तसे अनेक होते है उन सबको आचार्यदेव पहलेसे ही गौण कहते आये हैं और उन्होंने जीवको शुद्ध चैतन्यमात्र कहा है। इसप्रकार जीव-पदार्थको शुद्ध, नित्य, अभेद चैतन्यमात्र स्थापित करके अब कहते हैं कि-जो शुद्धनयका भी पक्षपात (विकल्प) करेगा वह भी उस शुद्ध स्वरूपके स्वादको प्राप्त नहीं करेगा। अशद्धनयकी तो बात ही क्या है ? किन्त यदि कोई शुद्धनयका भी पक्षपात करेगा तो पक्षका राग नहीं मिटेगा इसलिये वीतरागता प्रगट नहीं होगी। पक्षपातको छोड़कर चिन्मात्र स्वरूपमें लीन होनेपर ही समयसारको प्राप्त किया जाता है। इसलिये शुद्धनयको जानकर, उसका भी पक्षपात छोड़कर शुद्ध स्वरूपका अनुभव करके, स्वरूप में प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके, वीतराग दशा प्राप्त करनी चाहिये। ७०।
श्लोकार्थ:- [ मूढः ] जीव मूढ़ ( मोही) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] वह मूढ़ नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ( अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा ही निरंतर अनुभवमें आता है)। ७१।
श्लोकार्थ:- [ रक्तः] जीव रागी है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है, और [न तथा] वह रागी नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति ] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव
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