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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates पूर्वरंग न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं तत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात्। ( मालिनी ) पुनर्भविष्याम्येतस्यै त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत्। इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेक: किल कलयति काले कापि तादात्म्यवृत्तिम् ।। २२ ।। अथाप्रतिबुद्धबोधनाय व्यवसाय: क्रियते ५७ भविष्यमें नहीं होऊँगा, मैं था; यह परद्रव्य मेरा भविष्यमें नहीं होगा, इसका अपना ही भविष्यमें होऊँगा, इस ( परद्रव्य) का यह ( परद्रव्य) भविष्यमें होगा। ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ आत्मविकल्प होता है वही प्रतिबुद्ध (ज्ञानी) का लक्षण है, इससे ज्ञानी पहिचाना जाता है । भावार्थ:- जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है वह तो अज्ञानी है और जो अपने आत्माको ही अपना मानता है वह ज्ञानी है - यह अग्नि- ईंधनके दृष्टांत से दृढ़ किया है। יי अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ जगत् ] जगत् अर्थात् जगत्के जीवों ! [ आजन्मलीढं मोहम् ] अनादि संसारसे लेकर आज तक अनुभव किये गये मोहको [ इदानीं त्यजतु ] अब तो छोड़ो और [ रसिकानां रोचनं ] रसिक जनोंको रुचिकर, [ उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसको [ रसयतु] आस्वादन करो; क्योंकि [ इह ] इस लोकमें [आत्मा ] आत्मा [ किल ] वास्तवमें [ कथम् अपि ] किसी प्रकार भी [ अनात्मना साकम् ] अनात्मा (परद्रव्य) के साथ [ क्व अपि काले ] कदापि [ तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] ताहात्म्यवृत्ति ( एकत्व ) को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आत्मा [ एक: ] एक है वह अन्य द्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com भावार्थ:- आत्मा परद्रव्यके साथ किसीप्रकार किसी समय एकताके भावको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार आचार्यदेवने, अनादिकालसे परद्रव्यके प्रति लगा हुआ जो मोह है उसका भेदविज्ञान बताया है और प्रेरणा की है कि इस एकत्वरूप मोहको अब छोड़ दो और ज्ञानका आस्वादन करो; मोह वृथा है, झूठा है, दुःखका कारण है।। २२।। अब अप्रतिबुद्धको समझाने के लिये प्रयत्न करते हैं:
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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