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समयसार
८
अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो।। २३ ।। सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ।। २४ ।। जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं। तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ।। २५ ।।
अज्ञानमोहितमतिर्ममेदं भणति पुद्गलं द्रव्यम्। बद्धमबद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्तः ।। २३ ।। सर्वज्ञज्ञानदृष्टो जीव उपयोगलक्षणो नित्यम्। कथं स पुद्गलद्रव्यीभूतो यगणसि ममेदम्।। २४ ।। यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत्।
तच्छक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यम्।। २५ ।। अज्ञान मोहितबुद्धि जो, बहुभावसंयुत जीव है। "ये बद्ध और अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरा” वो कहे ।। २३ ।। सर्वज्ञज्ञानविषै सदा, उपयोगलक्षण जीव है। वो कैसे पुद्गल हो सके जो, जो तू कहे मेरा अरे! ।। २४ ।। जो जीव पुद्गल होय , पुद्गल प्राप्त हो जीवत्वको । तू तब हि ऐसा कह सके, है मेरा' पुद्गलद्रव्य को ।। २५।।
गाथार्थ:- [ अज्ञानमोहितमतिः ] जिसकी मति अज्ञानसे मोहित है [ बहुभावसंयुक्तः ] और जो मोह, राग, द्वेष आदि अनेक भावोंसे युक्त है ऐसा [ जीव:] जीव [ भणति ] कहता है कि [इदं ] यह [ बद्धम् तथा च अबद्धं ] शरीरादिक बद्ध तथा धनधान्यादिक अबद्ध [ पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [मम] मेरा है। आचार्य कहते हैं कि- [सर्वज्ञज्ञानदृष्ट:] सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा देखा गया जो [ नित्यम् ] सदा [उपयोगलक्षण: ] उपयोगलक्षणवाला [जीव: ] जीव है [ सः ] वह [ पुद्गलद्रव्योभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप [कथं ] कैसे हो सकता है [ यत् ] जिससे कि [ भणसि ] तू कहता है कि [इदं मम] यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ? [ यदि] यदि [सः] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्यीभूतः ] पुद्गलद्रव्यरूप हो जाये और [इतरत् ] पुद्गलद्रव्य [ जीवत्वम् ] जीवत्वको [ आगतम् ] प्राप्त करे [ तत् ] तो [ वक्तुं शक्तः ] तू कह सकता है [ यत् ] कि [ इदं पुद्गलं द्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रव्य [ मम ] मेरा है। (किन्तु ऐसा तो नहीं होता।)
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