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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates संवर अधिकार
इति संवरो निष्क्रान्तः।
इति संवरप्ररूपकः पञ्चमोऽङ्कः।।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
२९९
[कर्मणां संवरेण ] कर्मोंका संवर हुआ और कर्मोंका संवर होनेसे, [ ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं ] ज्ञानमें ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदय को प्राप्त हुआ- [ बिभ्रत् परमम् तोषं ] कि जो ज्ञान परम संतोषको ( परम अतीन्द्रिय आनंदको) धारण करता है, [अमल-आलोकम् ] जिसका प्रकाश निर्मल है ( अर्थात् रागादिकके कारण मलिनता थी वह अब नहीं है ), [ अम्लानम् ] जो अम्लान है (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञानकी भाँति कुम्हलाया हुआ - निर्बल नहीं है, सर्व लोकालोकके जाननेवाला है ), [ एकं ] जो एक है ( अर्थात् क्षयोपशमसे भेद था वह अब नहीं है) और [ शाश्वतउद्योतम् ] जिसका उद्योत शाश्वत है ( अर्थात् जिसका प्रकाश अविनश्वर है ) । १३२ ।
टीका:-इसप्रकार संवर ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।
भावार्थ:-रंग भूमिमें संवरका स्वांग आया था उसे ज्ञानने जान लिया इसलिये वह नृत्य करके बाहर निकल गया ।
* सवैया तेईसा
भेदविज्ञानकला प्रगटै, तब शुद्धस्वभाव लहै अपना ही, राग-द्वेष-विमोह सबहि गलि जाय, इमै दुठ कर्म रुकाही; उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातममाहीं,
यों मुनिराज भली विधि धारतु, केवल पाय सुखी शिव जाहीं ।
इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें संवरका प्ररूपक पाँचवाँ अंक समाप्त हुआ ।
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