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समयसार
२९८
( अनुष्टुभ् ) भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।। १३१ ।।
__ (मन्दाक्रान्ता) भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्भाद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण। बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं
ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत्।। १३२ ।। अब पुनः भेदविज्ञानकी महिमा बतलाते हैं :--
श्लोकार्थ:- [ये केचन किल सिद्धाः ] जो कोई सिद्ध हुए है [ भेदविज्ञानतः सिद्धाः ] वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; [ ये केचन किल बद्धाः ] जो कोई बंधे हैं [ अस्य एव अभावतः बद्धाः] वे उसीके (-भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं।
भावार्थ:-अनादि कालसे लेकर जबतक जीवको भेदविज्ञान नहीं है तबतक कर्मसे बँधता ही रहता है-संसारमें परिभ्रमण ही करता रहता है; जिस जीवको भेदविज्ञान होता है वह कर्मोंसे अवश्य छूट जाता है-मोक्षको प्राप्त कर ही लेता है। इसलिये कर्मबंधका-संसारका-मूल भेदविज्ञानका अभाव ही है और मोक्षका पहला कारण भेदविज्ञान ही है। भेदविज्ञानके बिना कोई सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता।
यहाँ ऐसा भी समझना चाहिये कि-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध और वेदान्ती जो कि वस्तुको अद्वैत कहते हैं और अद्वैतके अनुभवसे ही सिद्धि कहते हैं उनका , भेदविज्ञानसे ही सिद्धि कहनेसे, निषेध हो गया; क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा अद्वैत न होने पर भी जो सर्वथा अद्वैत मानते हैं उनके किसी भी प्रकार से भेदविज्ञान कहा ही नहीं जा सकता; जहाँ द्वैत (दो वस्तुएँ) ही नहीं मानते वहाँ भेदविज्ञान कैसा? यदि जीव और अजीव-दो वस्तुएं मानी जायें और उनका संयोग माना जाये तभी भेदविज्ञान हो सकता है और सिद्धि हो सकती है। इसलिये स्याद्वादियोंको ही सब कुछ निर्बाधतया सिद्ध होता है। १३१।
अब , संवर अधिकार पूर्ण करते हुए, संवर होनेसे ज्ञान हुआ उस ज्ञानकी महिमाका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ भेदज्ञान-उच्छलन-कलनात् ] भेदज्ञान प्रगट करनेके अभ्याससे [शुद्धतत्त्व-उपलम्भात् ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि हुई, शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धिसे [ रागग्रामप्रलयकरणात् ] राग समूहका विलय हुआ, रागना समूहके विलय करनेसे
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