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समयसार
१९८
न स्वयं बद्धः कर्मणि न स्वयं परिणमते क्रोधादिभिः। यद्येषः तव जीवोऽपरिणामी तदा भवति।।१२१ ।। अपरिणममाने स्वयं जीवे क्रोधादिभिः भावैः। संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा।। १२२ ।। पुद्गलकर्म क्रोधो जीवं परिणामयति क्रोधत्वम्। तं स्वयमपरिणममानं कथं नु परिणामयति क्रोधः।।१२३ ।। अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधभावेन एषा ते बुद्धिः । क्रोधः परिणामयति जीवं क्रोधत्वमिति मिथ्या।। १२४ ।। क्रोधोपयुक्तः क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा। मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभः ।। १२५ ।।
गाथार्थ:-सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई! [ एषः] यह [ जीवः ] जीव [ कर्मणि ] कर्ममें [ स्वयं] स्वयं [बद्धः न ] नहीं बँधा है और [ क्रोधादिभिः] क्रोधादिभावसे [ स्वयं] स्वयं [ न परिणमते ] नहीं परिणमता [यदि तव] यदि ऐसा यह मत है [तदा] तो वह (जीव) [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति] सिद्ध होता है; [जीवे] और जीव [ स्वयं] स्वयं [ क्रोधादिभिः भावैः ] क्रोधादिभावरूप [अपरिणममाने] नहीं परिणमता होनेसे, [संसारस्य] संसारका [अभावः ] अभाव [ प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा] अथवा [ सांख्यसमयः] सांख्यमतका प्रसंग आता है।
[पुद्गलकर्म क्रोधः ] और पुद्गलकर्म जो क्रोध है वह [ जीवं] जीवको [ क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [ परिणामयति ] परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि [ स्वयम् अपरिणममानं] स्वयं नहीं परिणमते हुए [ तं] उस जीवको [ क्रोधः ] क्रोध [ कथं नु] कैसे [ परिणामयति ] परिणमन करा सकता है ? [ अथ] अथवा यदि [आत्मा] आत्मा [ स्वयम् ] अपने आप [क्रोधभावेन] क्रोधभावसे [ परिणमते ] परिणमता है [ एषा ते बुद्धि:] ऐसी तेरी बुद्धि हो, तो [ क्रोध:] क्रोध [ जीवं ] जीवको [ क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [ परिणामयति ] परिणमन कराता है [इति] यह कथन [ मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है।
इसलिये यह सिद्धान्त है कि [ क्रोधोपयुक्त ] क्रोधमें उप्युक्त ( अर्थात् जिसका उपयोग क्रोधाकार परिणमित हुआ है ऐसा) [ आत्मा ] आत्मा [ क्रोध ] क्रोध ही है, [ मनोपतुक्त ] मान में उपयुक्त आत्मा [ मानः एव ] मान ही है, [मायोपयुक्त ] माया में उपयुक्त आत्मा [माया ] माया है [च] और [ लोभोपयुक्त ] लोभ में उपयुक्त आत्मा [ लोभः ] लोभ [ भवति] है।
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