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समयसार
७०
जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हवेज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविहिं।। ३३ ।।
जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः।। ३३ ।। इह खलु पूर्वप्रक्रान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावातिरिक्तात्मसञ्चेतनेन
जितमोहस्य
सतो
यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टम्भात्तत्सन्तानात्यन्तविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावक: क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्ण परमात्मानमवाप्त: क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनो वचनकाय -श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि। अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि।
जितमोह साधुपुरुष का जब, मोह क्षय हो जाय है। परमार्थ विज्ञायक पुरुष, क्षीणमोह तब उनको कहे ।।३३।।
गाथार्थ:- [ जितमोहस्य तु साधोः] जिसने मोहको जीत लिया है, ऐसे साधुके [ यदा] जब [क्षीण: मोहः ] मोह क्षीण होकर सत्तामेंसे नष्ट [भवेत् ] हो [तदा] तब [ निश्चयविद्भिः ] निश्चयके जाननेवाले [ खलु ] निश्चयसे [ सः] उस साधुको [ क्षीणमोहः ] 'क्षीणमोह' नामसे [ भण्यते ] कहते हैं।
टीका:- इस निश्चयस्तुतिमें पूर्वोक्त विधानसे आत्मामेंसे मोहका तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यसे अधिक आत्माका अनुभव करनेसे जो जितमोह हुआ है, उसे जब अपने स्वभावभावकी भावनाका भलीभाँति अवलंबन करने से मोहकी संततिका ऐसा आत्यंतिक विनाश हो कि फिर उसका उदय न हो-इस प्रकार भावकरूप मोह क्षीण हो, तब (भावक मोहका क्षय होनेसे आत्माके विभावरूप भाव्यभावका अभाव होता है, और इसप्रकार) भाव्यभावक भावका अभाव होनेसे एकत्व होनेसे टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माको प्राप्त हुआ वह 'क्षीणमोह जिन' कहलाता है। यह तीसरी निश्चयस्तुति है।
यहाँ भी पूर्व कथनानुसार 'मोह' पदको बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्श-इन पदोंको रखकर सोलह सुत्रोंका व्याख्यान करना और इसप्रकारके उपदेशसे अन्य भी विचार लेना।
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