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पूर्वरंग
७१
(शार्दूलविक्रीडित) एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चयानुः स्तोत्र व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः। स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेन्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः ।। २७।।
(मालिनी) इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम्। अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव।। २८ ।।
भावार्थ:-साधु पहले अपने बलसे उपशम भावके द्वारा मोहको जीतकर, फिर जब अपनी महा सामर्थ्यसे मोहको सत्तामेंसे नष्ट करके ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होते हैं तब वे क्षीणमोह जिन कहलाते हैं।
अब यहाँ इस निश्चय-व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं] शरीर और आत्माके व्यवहारनयसे एकत्व है [तु पुनः ] किन्तु [ निश्चयात् न] निश्चयनयसे नहीं है; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति ] इसलिये शरीरके स्तवनसे आत्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुआ कहलाता है, [ तत्त्वत: तत् न] निश्चयनयसे नहीं; [ निश्चयत:] निश्चयसे तो [ चित्स्तुत्या एव ] चैतन्यके स्तवनसे ही [चितः स्तोत्रं भवति] चैतन्यका स्तवन होता है। [ सा एवं भवेत् ] उस चैतन्यका स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह-इत्यादिरूपसे कहा वैसा है। [अतः तीर्थकर- स्तवोत्तरबलात् ] अज्ञानीने तीर्थंकरके स्तवनका जो प्रश्न किया था उसका इसप्रकार नयविभागसे उत्तर दिया है; जिसके बलसे यह सिद्ध हुआ कि [ आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न ] आत्मा और शरीरमें निश्चयसे एकत्व नहीं है।। २७ ।।
अब फिर, इस अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है इस अर्थका सूचक काव्य कहते हैं:--
श्लोकार्थ:- [परिचित-तत्त्वैः ] जिन्होंने वस्तुके यथार्थ स्वरूपको परिचयरूप किया है ऐसे मुनिओंने [आत्म-काय-एकतायां] जब आत्मा और शरीरके एकत्व को [इति नय-विभजन-युक्त्या] इसप्रकार नयविभागकी युक्तिके द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम् ] जड़मूलसे उखाड़ फेंका है- उसका अत्यंत निषेध किया है, तब अपने [ स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फुटन् एकः एव ] निजरसके वेगसे आकृष्ट हुए प्रगट होनेवाले एकस्वरूप होकर [ कस्य ] किसी पुरुषको वह [ बोधः ] ज्ञान [ अद्य एव] तत्काल ही [ बोधं ] यथार्थपनेको [न अवतरति ] प्राप्त न होगा ? अवश्य ही होगा।
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