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समयसार
१३८
यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति। तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते, तावदानवेभ्यश्च निवर्तते यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वम्।
आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, और ज्यों ज्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है त्यों त्यों विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है); उतना विज्ञानघन स्वभाव होता है जितना सम्यक्प्रकारसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है ,और उतना आस्रवोंसे निवृत्त होता है जितना सम्यकप्रकार से विज्ञानघन स्वभाव होता है। इसप्रकार ज्ञान को और आस्रवोंकी निवृत्तिको समकालपना है।
भावार्थ:-आस्रवोंका और आत्माका जैसा ऊपर कहा है, तद्नुसार भेद जानते ही, जिस जिस प्रकारसे जितने जितने अंशमें आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता है उस उस प्रकारसे उतने उतने अंशमें वह आस्रवोंसे निवृत्त होता है। जब संपूर्ण विज्ञानघनस्वभाव होता है तब समस्त आस्रवोंसे निवृत्त होता है। इसप्रकार ज्ञानका और आस्रवनिवृत्तिका एक काल है।
यह आस्रवोंको दूर होनेका और संवर होनेका वर्णन गुणस्थानोंकी परिपाटीरूपसे तत्त्वार्थसूत्रकी टीका आदि सिद्धांतशास्त्रोंमें है वहाँसे जानना। यहाँ तो सामान्य प्रकरण है इसलिये सामान्यतया कहा है।
'आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है' इसका क्या अर्थ है ? उसका उत्तर:- आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है अर्थात् आत्मा ज्ञानमें स्थित होता जाता है।' जब तक मिथ्यात्व हो तब तक ज्ञानको ( भले ही यह क्षयोपशमिक ज्ञान अधिक हो तो भी) अज्ञान कहा जाता है और मिथ्यात्व के जाने के बाद उसे-( भले ही यह क्षयोपशमिक ज्ञान अल्प हो तो भी) विज्ञान कहा जाता है। ज्यों ज्यों वह ज्ञान अर्थात् विज्ञान स्थिर-घन होता जाता है त्यों त्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती जाती है और ज्यों ज्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती जाती है त्यों त्यों ज्ञान (विज्ञान) स्थिर-घन होता जाता है, अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है।
अब इसी अर्थका कलशरूप तथा आगेके कथनका सूचक काव्य कहते हैं:
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