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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ५२४ कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं। तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। ३८३ ।। कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं। तत्तो णियत्तदे जो सो पच्चक्खाणं हवदि चेदा।।३८४ ।। जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं। तं दोसं जो चेददि सो खलु आलोयणं चेदा।। ३८५ ।। यह तो अविरत, देशविरत और प्रमत्त अवस्थामें भी होता है। और जब अप्रमत्त अवस्था होती है तब जीव अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है; उस समय, उसने जिस ज्ञानचेतनाका प्रथम श्रद्धान किया था उसमें वह लीन होता है और श्रेणि चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करके, साक्षात् "ज्ञानचेतनारूप हो जाता है। २२३। जो अतीत कर्म के प्रति ममत्व छोड़ दे वह आत्मा प्रतिक्रमण है, जो अनागत कर्म न करने की प्रतिज्ञा करे ( अर्थात् जो भावोंसे आगामी कर्म बंधे उन भावोंका ममत्व छोड़े) वह आत्मा प्रत्याख्यान है और उदयमें आये हुए वर्तमान कर्मका ममत्व छोड़े वह आत्मा आलोचना है; सदा ऐसे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनापूर्वक प्रवर्तमान आत्मा चारित्र है। ऐसे चारित्रका विधान इन गाथाओं के द्वारा करते हैं: शुभ और अशुभ अनेकविध के कर्म पूरब जो किये। उनसे निवर्ते आत्मको , वो आतमा प्रतिक्रमण है ।। ३८३।। शुभ और अशुभ भावी करमका बंध हो जिन भावमें । उससे निवर्तन जो करे, वो आतमा पचखाण है ।। ३८४ ।। शुभ और अशुभ अनेकविध हैं उदित जो इस काल में । उन दोषको जो चेततो, आलोचना वह जीव है ।। ३८५।। * केवलज्ञानी जीवके साक्षात् ज्ञानचेतना होती है। केवलज्ञान होनेसे पूर्व भी, निर्विकल्प अनुभवके समय जीवके उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होती है। ज्ञानचेतनाके उपयोगात्मकत्वको मुख्य न किया जाये तो, सम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतना निरंतर होती है, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना नहीं होती; क्योंकि उसका निरंतर ज्ञानके स्वामित्वभावसे परिणमन होता है। कर्मके और कर्मफलके स्वामित्वभावसे परिणमन नहीं होता। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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